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________________ धर्मका ठेकेदार कोई नहीं 185 धर्मका ठेकेदार कोई नहीं बरुआसागरसे तार आया कि आप बाईजीको लेकर शीघ्र ही आवें । यहाँ सर्राफ मूलचन्द्रजीके पुत्ररत्न हुआ है। तार ही नहीं, लेनेके लिये एक मुनीम भी आ पहुँचा। हम और बाईजी मुनीमके साथ बरुआसागर पहुँच गये। मूलचन्द्रजी सर्राफके कोई उत्तराधिकारी नहीं था, अतः सदा चिन्तित रहते थे, पर अब साठ वर्षकी अवस्थामें पुत्ररत्नके उत्पन्न होनेसे उनकी प्रसन्नताका ठिकाना न रहा। बाईजीने कहा-'भैया ! कुछ दान करो। उसी समय पचास मन गेहूँ गरीबोंको बाँट दिया गया तथा मन्दिरमें श्रीजीका विधान कराया। ग्यारह दिनके बाद नाम-संस्कार किया गया। पूजन-विधान सम्पन्न हो जानेके बाद सौ नाम कागजके टुकड़ोंमें लिखकर एक थालीमें रख दिये। अनन्तर पाँच वर्षकी एक कन्यासे कहा कि इनमेंसे एक कागजकी पुड़िया निकालो। वह निकाले और उसीमें डाल देवे। चतुर्थ बार उससे कहा कि पुड़िया थालीके बाहर डाल दो। जब उसे खोला तो उसमें श्रेयान्सकुमार नाम निकला। अब क्या था ? सब लोग कहने लगे कि 'देखो, वर्णीजीको पहलेसे ही ज्ञान था, अन्यथा आपने नौ मास पहले जो कहा था कि सर्राफ मूलचन्द्रजीके बालक होगा और उसका नाम श्रेयान्सकुमार होगा......सच कैसे निकलता ? इत्यादि शब्दों द्वारा बहुत प्रशंसा करने लगे। पर मैंने कहा-'भाई लोगों ! मैं तो कुछ नहीं जानता था। यह तो घुणाक्षरन्यायसे सत्य निकल आया। आप लोगोंकी जो इच्छा हो, सो कहें ?' यहाँ एक बात विलक्षण हुई जो इस प्रकार है-हम लोग स्टेशन पर मूलचन्द्रजीके मकानमें रहते थे। पासमें कहार लोगोंका मोहल्ला था। एक दिन रात्रिको ओलोंकी वर्षा हुई। इतनी विकट कि मकानोंके खप्पर फूट गये। हम लोग रजाई आदिको ओढ़कर किसी तरह ओलोंके कष्टसे बचे। पड़ोसमें जो कहार थे वे सब राम राम कहकर अपनी प्रार्थना कर रहे थे। वे कह रहे थे कि-'हे भगवन् ! इस कष्टसे रक्षा कीजिये। आपत्तिकालमें आपके सिवाय ऐसी कोई शक्ति नहीं जो हमें कष्टसे बचा सके। उनमें एक नौ दस वर्षकी लड़की भी थी। वह अपने माता-पितासे कहती है कि 'तुम लोग व्यर्थ ही राम-राम रट रहे हो। यदि कोई राम होता तो इस आपत्तिकालमें हमारी रक्षा न करता। हमने उनका कौन-सा अपराध किया है जो इतनी निर्दयतासे ओले बरसा रहे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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