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मेरी जीवनगाथा
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और आज्ञा दी कि प्रातःकाल ही सहभोज हो। इस पञ्चायतमें प्रातःकाल हो गया। पञ्चायतसे उठकर हम, बाबा गोकुलचन्द्रजी तथा अन्य त्यागीवर्ग सामायिक करनेके लिये चले गये और अन्य पञ्च लोग शौचादि क्रियाके लिये बाहर गये।
दो घण्टाके बाद मन्दिरमें श्रीमान् बाबाजीका प्रभावशाली प्रवचन हुआ। अनन्तर सब लोग अपने-अपने स्थानों पर चले गये। जहाँ हम ठहरे थे वहीं पर रघुनाथकी बहिनने भोजन बनाया। दस बजेके बाद भोजन हो गया। पंगतका बुलौआ हुआ। पञ्च लोग आ गये। सानन्द भोजन परोसा गया, पर भोजन करनेमें एक दूसरेका मुख ताकने लगे। यह देख बाबाजीने कहा कि 'मुख ताकनेकी क्या बात है ? पहले तो हम लोग उनकी बहिन, स्त्री आदिके द्वारा बनाया भोजन करके यहाँ आये हैं। इस बात को पं. मुन्नालालजी अच्छी तरह जानते हैं। पं. मुन्नालालजी ने भी कहा कि 'मैं भी उस भोजनमें शामिल था, अतः आप निःसंकोच भोजन कीजिये। सब लोग फिर भी हिचकिचाते रहे। इतनेमें श्रीयुत मलैया प्यारेलालजी सागरने ग्रास उठाया और जिनेन्द्रदेवकी जय बोलते हुए भोजन शुरू कर दिया। फिर क्या था सब आनन्दसे भोजन करने लगे। बीचमें रघुनाथदासको भी शामिल कर लिया। दूसरे दिन दाल, भात, कढ़ी और साग पूड़ीका भोजन हुआ। इस तरह पञ्च लोगोंने ५० वर्षसे च्युत एक कुटुम्बका उद्धार कर दिया। एकका ही नहीं, उनके आश्रित प्रत्येक कुटुम्बोंका उद्धार हो गया।
यह सब काण्ड समाप्त होनेके बाद मैं श्रीयुत्त बाबाजीके साथ कुण्डलपुर चला गया। बाबाजीकी मेरे ऊपर निरन्तर अनुकम्पा रहती थी। उनका आदेश था कि-जैनधर्म आत्माका कल्याण करनेमें एक ही है, अतः जहाँ तक तुमसे बन सके, निष्कपट भावसे इसका पालन करना और यथाशक्ति इसका प्रचार करना। हमारी अवस्था तो वृद्ध हो गई ! हमारे बाद यह आश्रम चलना कठिन है, क्योंकि इसमें जितने त्यागी हैं उनमें संचालनकी शक्ति नहीं। तुम इस योग्य कुछ हो, परन्तु तुम इतने स्थिर नहीं कि एक स्थानपर रह सको। कहीं रहो, परन्तु आत्मकल्याणसे वञ्चित न रहना। तुम्हारे साथ जो बाबा भागीरथजी है वह एक रत्न है। उनका साथ न छोड़ना तथा जिस चिरोंजाबाईने तुम्हें पुत्रवत् पाला है उसकी अन्त समय तक सेवा करना। कृतज्ञता ही मनुष्यता की जननी है। हम यही आशीर्वाद देते हैं कि सुमार्ग के भागी होओ। कल्याणका मूल कारण निरीहवृत्ति है। 'निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम्।' विशेष क्या कहें ? जहाँ इच्छा हो, जाओ। मैं प्रणामकर सागर चला गया और आनन्दसे जीवन बिताने लगा।
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