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________________ पञ्चोंका दरबार 181 पञ्चायत प्रारम्भ हो गई। ग्रामके अन्य बिरादरीके लोग भी बुलाये गये। प्रथम ही श्री मूलचन्द्रजी बिलौआने प्रस्ताव किया कि 'आज जीवनमरणका प्रश्न है, अतः सब भाइयोंको परस्परका वैमनस्य भूल जाना चाहिए। अपराध सबसे होता है। उसकी क्षमा ही करनी पड़ती है। अपराधियोंकी कोई पृथक् नगरी नहीं। वैसे तो संसार ही अपराधियोंका घर है। अपराधसे जो शून्य हो जाता है वह यहाँ रहता ही नहीं, मुक्ति नगरीको चला जाता है। इसके अनन्तर श्रीमान मलैयाजी बोले कि 'बात तो ठीक है, परन्तु निर्णय छानबीन कर ही होना चाहिए। अतः मेरी नम्र प्रार्थना है कि जो महाशय इस विषयको जानते हों वे शुद्ध हृदयसे इस विषयको स्पष्ट करें। इसके बाद प्यारेलाल सिंघई बोले कि 'बहुत ठीक है, परन्तु जिनका पचास वर्षसे गोलालारोंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं उनके विषयमें पञ्चायत करना कहाँतक संगत है ? सो आप ही जानें। इनके भतीजे भी इन्हींके पक्षमें बोले। मैंने कहा-'आपका कहना न्यायसंगत है; किन्तु कोई मनुष्य अस्सी वर्षका इस विषयको जानता हो और निष्पक्ष भावसे कहता हो तो निर्णय होनेमें क्या आपत्ति है ?' श्री सिंघईजी बोले-'वह अस्सी वर्षका वृद्ध गोलालारे जातिका होना चाहिए।' यह सुनकर उपस्थित महानुभावोंमें बहुत क्षोभ हुआ। सब महाशय एक स्वरसे बोल उठे-'सिंघईजीका बोलना अन्यायपूर्ण है। कोई जातिका हो, इस विषयमें जो निष्पक्ष भावसे कहेगा वह हम लोगोंको मान्य होगा। हम न्याय करनेके आये हैं। आज न्याय करके ही आसन छोड़ेंगे।' इतनेमें वह वृद्ध, जो कि पिछली पंचायतमें आया था, बोलनेको उद्यमी हआ। वह बोला-'पञ्च लोगों ! मैंने पहली ही सभामें कह दिया था कि रघुनाथ मोदीके पूर्वजोंने हठ की और पञ्चोंके फैसला को नहीं माना। उसीके फलस्वरुप आज उसकी सन्तानकी यह दुर्दशा हो रही है। यह सन्तान निर्दोष है तथा इसके पूर्वज भी निर्दोष थे। यदि आप लोग इन्हें न मिलावेंगे तो ये केवल जातिसे ही च्युत न होंगे, वरन धर्म भी परिवर्तन कर लेंगे। संसार अपार है। इसमें नाना प्रकृतिके मनुष्य रहते हैं। बिना संघटनके संसारमें किसी भी व्यक्तिका निर्वाह नहीं होता, अतः इन्हें आप लोग अपनावें। जबकि पञ्चोंने इनकी पंगत लेना स्वीकार की थी तब यह बिनैका नहीं, यह तो अपने आप सिद्ध हो जाता है। बस, अधिक बोलना अच्छा नहीं समझता।' पञ्चोंने वृद्ध बाबाकी कथाका विश्वास किया। केवल प्यारेलाल सिंघईको वृद्धका कहना रुचिकर नहीं हुआ, उठकर घर चले गये। मैंने बहुत रोका, पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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