________________
मेरी जीवनगाथा
178
ही इन दोषोंसे लिप्त होगा वह अन्यको शुद्ध करनेमें समर्थ न होगा। अस्तु, आप लोगोंकी जो इच्छा हो-जैसा आपके मस्तिष्कमें आवे वैसी पंचायत करना। मैं तो जो जानता हूँ वह आपके समक्ष निवेदन करता हूँ।
पचास वर्ष पहलेकी बात है। रघुनाथ मोदीके पिताने एक बार जाति भोज किया था। उसमें कई ग्रामके लोग एकत्र हुए थे। पंगतके बाद इनके पिताने पंच लोगोंसे यह भावना प्रकट की कि यहाँ यदि मन्दिर बन जावे तो अच्छा हो। सबने स्वीकार किया। दवात कलम कागज मँगाया गया। चन्दा लिखना प्रारम्भ हुआ। सबसे अच्छी रकम रघुनाथ मोदीके पिताने लिखायी। एक ग्रामीण मनुष्यने चन्दा नहीं लिखाया। उसपर इनके पिता बोले-'खानेको तो शूर है पर चन्दा देनेमें आनाकानी।' इसपर पञ्च लोग कुपित होकर उठने लगे। जैसे-तैसे अन्तमें यह पंचायत हुई कि चूँकि रघुनाथके पिताने एक गरीबकी तौहीनी की, अतः दो सौ रुपया मन्दिरको और एक पक्का भोजन पञ्चोंको देवें, नहीं तो जातिमें इन्हें न बुलाया जावे। बहुत कहाँ तक कहें ? यह अपनी अकड़में आ गये और न दण्ड दिया न पंगत ही। यह विचार करते रहे कि हम धनाढ्य हैं, हमारा कोई क्या कर सकता है ? अन्तमें फल यह हुआ कि चार वर्ष बीत गये, उन्हें कोई भी बिरादरी नहीं बुलाता था और न कोई उनके यहाँ आता था। जब लड़के शादीके योग्य हुए तब चिन्तामें पड़ गये। जिससे कहें वही उत्तर देवे कि जब पहिले अपने प्रान्तके साथ व्यवहार हो जावे तभी हम आपके साथ विवाह सम्बन्ध कर सकते हैं, अन्यथा नहीं। वह वहाँसे चलकर पनागर, जो कि जबलपुरके पास है, पहुँचे। वहाँ पर प्रतिष्ठा थी। वहाँ भी इन्होंने पञ्चोंसे कहा। उन्होंने यही कहा कि 'चूंकि तुमने पञ्चोंकी तौहीनी की है, अतः यह पञ्चायत आज्ञा देती है कि २००) के स्थानमें ५००) दण्ड और १ पंगतके स्थानमें २ पंगत पक्की हो....यही तुम्हारा दण्ड है। इन्होंने स्वीकार किया कि हम जाकर शीघ्र ही पञ्चोंकी आज्ञाके अनुकूल दण्ड देकर जातिमें मिल जावेंगे। वहाँ तो कह आये पर आकर धनके नशामें मस्त हो गये और पंगत तथा दण्ड कुछ भी नहीं दिया। अब यह चिन्ता हुई कि लड़के लड़कियोंका विवाह किस प्रकार किया जावे ? तब यह उपाय किया कि जो गरीब जैनी थे उन्हें पूँजी देकर अपने अनुकूल बना लिया और उनके साथ विवाह कर चिन्तासे मुक्त हो गये। मन्दिर जानेका कोई प्रतिबन्ध था नहीं, इससे इन्होंने उस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। इस तरह यह अपनी संख्या घटाते गये जो
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org