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________________ मेरी जीवनगाथा 176 कल्याण है। हमने मित्रकी बात स्वीकार कर उनसे व्रत नहीं लिया। अब आप हमारे पूज्य हैं तथा आपमें मेरी भक्ति है, अतः व्रत दीजिए।' बाबाजीने कहा-'अच्छा आज ही व्रत ले लो। प्रथम तो श्री वीरप्रभुकी पूजा करो। पश्चात् आओ, व्रत दिया जावेगा।' _ मैंने आनन्दसे श्री वीरप्रभुकी पूजा की। अनन्तर बाबाजीने विधिपूर्वक मुझे सप्तमी प्रतिमाके व्रत दिये। मैंने अखिल ब्रह्मचारियोंसे इच्छाकार किया और यह निवेदन किया कि 'मैं अल्पशक्तिवाला क्षुद्र जीव हूँ। आप लोगोंके सहवासमें इस व्रतका अभ्यास करना चाहता हूँ। आशा है मेरी नम्र प्रार्थना पर आप लोगोंकी अनुकम्पा होगी। मैं यथाशक्ति आप लोगोंकी सेवा करनेमें सन्नद्ध रहूँगा।' सबने हर्ष प्रकट किया और उनके सम्पर्कमें आनन्दसे काल जाने लगा। पञ्चोंका दरबार एक दिन मैंने बाबा गोकुलचन्द्रजीसे कहा-'महाराज ! बड़गाँवके आस-पास बहुतसे गोलालारोंके घर अपनी जातिसे बाह्य हैं। यदि आपका बिहार उस क्षेत्रमें हो जाय तो उनका उद्धार सहज ही हो जाय। मैं आपकी सेवा करनेके लिये साथ चलँगा।' बाबाजीने स्वीकार किया। हम लोग बांदकपुर स्टेशनसे रेलमें बैठकर सलैया आ गये, वहाँसे ३ घण्टेमें बड़गाँव पहुँच गये। सागरसे पं. मूलचन्द्रजी, कटनीसे पं. बाबूलालजी, रीठीसे श्री सिं. लक्ष्मणदासजी तथा रैपुरासे लश्करिया आदि बहुतसे सज्जन गण भी आ पहूँचे। सिंघई प्यारेलाल कुन्दीलालजी वहाँ पर थे ही। रघुनाथ नारायणदास मोदीसे हम लोगोंने कहा कि 'सायंकाल पञ्चायत बुलानेका आयोजन करो।' उन्होंने वैसा ही किया। हम लोगोंने बाबाजीकी छत्रछायामें सामायिक की। रात्रिके आठ बजे सब महाशय एकत्र हो गये। मैंने कहा-'इस ग्राममें जो सबसे वृद्ध हो उसे भी बुलाओ। रघुनाथ मोदी स्वयं गये और एक लोधीको जिसकी अवस्था ८० वर्षके लगभग होगी, साथ ले आये। ग्रामके और लोग भी पंचायत देखनेके लिये आये। श्री बाबा गोकुलचन्द्रजी सर्वसम्मतिसे सभापति चुने गये । यहाँ सभापतिसे तात्पर्य सरपञ्चका है। मैंने ग्रामके पञ्च सरदारोंसे नम्र शब्दोंमें निवेदन किया कि-'यह दुःखमय संसार है। इसमें जीव नाना दुःखोंके पात्र होते हुए चतुर्गतिमें भ्रमण करते-करते बड़े पुण्यसे मनुष्य जन्म पाते हैं। मनुष्यगतिमें उत्पन्न होकर भी जैनकुलमें जन्म पाना चतुष्पथके रत्नकी तरह परम दुर्लभ है। आज रघुनाथ मोदी जैनकुलमें जन्म लेकर भी ५० वर्षसे जातिबाह्य होनेके कारण सब धर्मकार्योंसे वञ्चित रहते हैं, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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