________________
श्रीमान् बाबा गोकुलचन्द्रजी
175
रकमा कि श्री कुण्डलपुतः आप सिवनी, नाव
साहब एकदम प्रभावित हो गये और आप तीनों भाइयोंने दस-दस हजारकी रकमसे इन्दौरमें एक उदासीनाश्रम स्थापित कर दिया। परन्तु आपकी भावना यह थी कि श्री कुण्डलपुर क्षेत्र पर श्रीमहावीर स्वामीके पादमूलमें आश्रमकी स्थापना होना चाहिए, अतः आप सिवनी, नागपुर, छिंदवाड़ा, जबलपुर, कटनी, दमोह आदि स्थानोंपर गये और अपना मन्तव्य प्रकट किया। जनता आपके मन्तव्यसे सहमत हुई और उसने बारह हजारकी आयसे कुण्डलपुरमें एक उदासीनाश्रमकी स्थापना कर दी।
आप बहुत ही असाधारण व्यक्ति थे। आपके एक सुपुत्र भी था जो कि आज प्रसिद्ध विद्वानोंकी गणनामें है। उसका नाम श्री पं. जगन्मोहनलालजी शास्त्री है। इनके द्वारा कटनी पाठशाला सानन्द चल रही है तथा खुरई गुरुकुल और वर्णीगुरुकुल जबलपुरके ये अधिष्ठाता हैं।
__इनके लिये श्रीसिंघई गिरधारीलालजी अपनी दुकान पर कुछ द्रव्य जमा कर गये हैं। उसीके ब्याजसे ये अपना निर्वाह करते हैं। ये बहत ही सन्तोषी और प्रतिभाशाली विद्वान् हैं। व्रती, दयालु और विवेकी भी हैं। यद्यपि सिं. कन्हैयालालजीका स्वर्गवास हो गया है फिर भी उनकी दुकानके मालिक चि. स. सिं. धन्यकुमार जयकुमार हैं। वे उन्हें अच्छी तरह मानते हैं और उनके पूर्वज पण्डितजीके विषयमें जो निर्णय कर गये थे, उसका पूर्णरूपसे पालन करते हैं। विद्वानोंका स्थितीकरण कैसा करना चाहिये, यह इनके परिवारसे सीखा जा सकता है। चि. धन्यकुमार विद्याका प्रेमी ही नहीं, विद्याका व्यसनी भी है। यह आनुषंगिक बात आ गई।
मैंने कुण्डलपुर श्रीबाबा गोकुलचन्द्रजीसे प्रार्थना की कि 'महाराज ! मुझे सप्तमी प्रतिमाका व्रत दीजिये। मैंने बहुत दिन से नियम कर लिया था कि मैं सप्तमी प्रतिमाका पालन करूँगा और यद्यपि अपने नियमके अनुसार दो वर्षसे उसका पालन भी कर रहा हूँ तो भी गुरुसाक्षी पूर्वक व्रत लेना उचित है। मैं जब बनारस था, उस समय भी यही विचार आया कि किसीकी साक्षी पूर्वक व्रत लेना अच्छा है, अतः मैंने श्री ब्र. शीतलप्रसादजी लखनऊको इस आशयका तार दिया कि आप शीघ्र आवें, मैं सप्तमी प्रतिमा आपकी साक्षीमें लेना चाहता हूँ। आप आगये और बोले-'देखो, हमारा तुम्हारा कई बातोंमें मतभेद है। यदि कभी विवाद हो गया तो अच्छा नहीं। हम चुप रह गये। हमारा एक मित्र मोतीलाल ब्रह्मचारी था जो कुछ दिन बाद ईडरका भट्टारक हो गया था। उसने भी कहा-'ठीक है, तुम यहाँ पर यह प्रतिमा न लो। इसीमें तुम्हारा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org