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जातिका संवर
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तथा स्वाध्यायकी परिपाटीका नियमपूर्वक पालन करते हैं तथा श्री गिरिराज, गिरिनार आदि तीर्थों की यात्रा भी करते हैं, भोजनादिकी प्रक्रिया भी शुद्ध है, हम लोग कभी रात्रि भोजन नहीं करते और न कभी अनछना पानी पीते हैं। हाँ, इतना अपराध अवश्य हुआ कि एक लड़केकी शादी पचबिसे गोलापूर्वकी कन्यासे हो गई और एक लड़की परवारको दे दी। सो यह भी कार्य हम लोगोंकी संख्या बहुत अल्प रह जानेसे करना पड़ा है। हम लोगोंके घर मुश्किलसे पच्चीस या तीस होंगे। यदि हमारे साथ ऐसा ही व्यवहार रहा तो कुछ कालमें हमारा अस्तित्व ही लुप्त हो जावेगा। आप यह जानते हैं कि जहाँ पर आय नहीं केवल व्यय ही हो वहाँ मूलधनका नाश ही ध्रुव है। आप लोग अपनाते नहीं, अतः हम कहाँ जावें? या तो निर्णय कर हमें जातिमें सम्मिलित कीजिये या आज्ञा दीजिये कि हम स्वेच्छाचारी होकर जहाँ-तहाँ विचरें, बहुत कष्ट सहे, अब नहीं सहे जाते। अन्तमें आपकी ही क्षति होगी। पहले चौरासी जातिके वैश्य जैन थे, पर अब आधे भी देखनेमें नहीं आते। आशा है कि हमारी राम कहानी पर आपकी स्वभाव सिद्ध एवं कुलपरम्परागत दया उमड़ पड़ेगी, अन्यथा अब हमारा निर्वाह होना असम्भव है। विशेष अब कुछ नहीं कहना चाहते। जो कुछ वक्तव्य था सब ही आपके पुनीत चरणमें रख दिया। साथ ही यह निवेदन कर देना भी समुचित समझते हैं कि आप लोग शारीरिक अथवा आर्थिक जो कुछ भी दण्ड देवेंगे उसे हम सहन करेंगे। प्रायश्चित विधिमें यदि उपवास आदि देवेंगे तो उन्हें भी सहर्ष स्वीकृत करेंगे।......इतना कहते-कहते उनका गला रुंध गया और आँखोंसे अश्रु छलक पड़े। दस हजार जनता सुनकर अवाक् रह गई। सबने एक स्वरसे कहा कि 'यदि ये शुद्ध हैं और दस्साके वंशज नहीं हैं तो इन्हें जातिमें मिला लेना ही श्रेयस्कर है, यह फैसला अविलम्ब हो जाना चाहिये।
थोड़ी देरके बाद मुख्य-मुख्य पञ्चोंने एकान्तमें परामर्श किया। बहुतोंने विरोध और बहुतोंने अविरोध रूपमें अपने-अपने विचार व्यक्त किये । अन्तमें यह निर्णय हुआ कि इतनी शुद्धि कर लेना चाहिये। परन्तु शुद्धिके पहले अपराधका निर्णय हो जाना आवश्यक है। पश्चात् इन्हें शुद्ध कर लेना चाहिये। इनसे दस हजार कुण्डलपुर क्षेत्रको और तीन पंगत प्रान्त भरके पञ्चोंको लेना चाहिये। यह निर्णयकर पञ्च लोगोंने आम जनताके समक्ष अपना मन्तव्य प्रकाशित कर दिया।
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