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________________ 172 मेरी जीवनगाथा वही कर बैठते हैं । यदि कोई निष्कपट भावसे उन्हें उपदेश देवें तो उस उपदेशका महान् आदर करते हैं और उपदेशदाताको परमात्मा तुल्य मानते हैं । कहनेका तात्पर्य यह है कि विद्वान् ग्रामोंमें जाकर वहाँके निवासियोंकी प्रवृत्तिको निर्मल बनानेकी चेष्टा करें। जातिका संवर I एक बार हम लोग सागरसे हरदीके पञ्चकल्याणकमें गये । वहाँ जाकर पण्डित मोतीलालजी वर्णीके डेरा पर ठहर गये । आप ही प्रतिष्ठाचार्य थे । यहाँ पर एक बड़ी दुर्घटना हो गई, जो इस प्रकार है - मन्दिरके द्वार पर मधुमक्खियोंका एक छत्ता लगा था । उसे लोगोंने धुवाँ देकर हटा दिया । रात्रिको शास्त्र-प्रवचनके समय उस विषयपर बड़ा बाद विवाद हुआ। बहुत लोगोंने कहा कि जहाँ पर भगवान्‌के पंचकल्याणक हों वहाँ ऐसा अनर्थ क्यों हुआ ? अन्तमें यह निर्णय हुआ कि जो हुआ सो हो चुका। वह सिंघईजीकी गलती नहीं थी, सेवक लोगोंने यह अनर्थ किया । परन्तु मालिकने विशेष ध्यान नहीं दिया, अतः कलके दिन १००० दरिद्रोंको मिष्टान्न भोजन करावें... यही उसका प्रायश्चित्त है। सिंघईजीने उक्त निर्णयके अनुसार दूसरे दिन १००० दरिद्रोंको भोजन कराकर पंचायतके आदेशका पालन किया । 1 यहाँ पर रथमें श्रीरघुनाथजी मोदी बड़गाँव वाले आये थे । ये जातिके गोलालारे थे और जहाँ इनका घर था वहाँ २०० गोलालारे और थे । इन लोगोंका गोलालारोंसे ५० वर्षसे सम्पर्क छूटा हुआ था । गोलालारे न तो इन्हें अपनी कन्या देते थे और न ही इनकी कन्या लेते थे । यह लोग परस्परमें ही अपना निर्वाह करते थे। इन्होंने पण्डित मूलचन्द्रजीसे, जो कि सागर पाठशालाके सुपरिन्टेन्डेन्ट थे, कहा - 'हमको जातिमें मिला लिया जावे।' पण्डित मूलचन्द्रजी बहुत चतुर मनुष्य हैं। उन्होंने उत्तर दिया - कि 'भाई साहब ! यदि आप मिलना चाहते हैं तो आप जनतामें अपना विषय रखो । देखें, क्या उत्तर मिलता है ?' श्रीरघुनाथ मोदीने रात्रिको शास्त्रप्रवचनके बाद सागर, दमोह, शाहपुर आदि प्रान्त भरके समग्र पञ्चोंके समक्ष अपनी दुर्दशाका चित्र रक्खा, जो बहुत ही करुणोत्पादक था । उन्होंने कहा - 'हम लोग पचास वर्षसे जाति बाह्य हैं। हम लोगोंका तो कोई अपराध नहीं, जो भी कुछ हो, पूर्वजोंका है। हमने जबसे अपना कार्य सँभाला है तबसे न तो कोई पाप किया है और न किसी दस्साके साथ सम्बन्ध ही किया है। बराबर देवदर्शन, पूजा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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