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________________ पञ्चोंकी अदालत 171 ....उन्होंने कहा। 'और कुछ बोलना चाहते हो।'....मैंने कहा। 'नहीं'....उन्होंने कहा। बस, मुझे एकदम क्रोध आ गया। मैंने बाहर आकर पञ्चोंके समक्ष सब रहस्य खोल दिया और उनकी अविवेकता पर आध घण्टा व्याख्यान दिया। जिसने मुझे एकान्तमें यह रहस्य बतलाया था उसका पाँच रुपया दण्ड किया तथा सेठजीसे कहा कि हम ऐसे पञ्चोंके साथ सम्भाषण करना महान् पाप समझते हैं। इस ग्राममें मैं पानी न पीऊँगा तथा ऐसे विवाहादि कार्यों में जो भोजन करेगा वह महान पातकी होगा। सुनते ही जितने नवयुवक थे सबने विवाहकी पंगतमें जानेसे इंकार कर दिया और जो पंगतमें पहुंच चुके थे वे सब पतरीसे उठने लगे। __बातकी बातमें सनसनी फैल गई। लड़की वाला दौड़ आया और बड़ी नम्रतासे कहने लगा-'मैंने कौन-सा अपराध किया है ? मैं उसे बुलानेको तैयार हूँ।' पञ्च लोगोंने अपने अपराधका प्रायश्चित किया और जो महाशय सुन्दर-रूपवती स्त्रीके कारण विवाहमें नहीं बुलाये जाते थे वे पंक्ति भोजनमें सम्मिलित हुए। इस प्रकार यह अनर्थ दूर हुआ। इसी ग्राममें यह भी निश्चय हो गया कि हम लोग विवाहमें स्त्रीसमुदाय न ले जावेंगे और एक प्रस्ताव यह भी पास हो गया कि जो आदमी दोषका प्रायश्चित लेकर शुद्ध हो जावेगा उसे विवाह आदि कार्यों के समय बुलाने में बाधा न होगी। एक सुधार यह भी हो गया कि मन्दिरका द्रव्य जिनके पास है उनसे आज वापिस ले लिया जावे तथा भविष्यमें बिना गहनेके किसीको मन्दिरसे रुपया न दिया जावे। यह भी निश्चय हुआ कि आरम्भी, उद्यमी एवं विरोधी हिंसाके कारण किसीको जातिसे बहिष्कृत न किया जावे। यह भी नियम पास हो गया कि पंगतमें आलू, बैंगन आदि अभक्ष्य पदार्थ न बनाये जावें तथा रात्रिके समय मन्दिरमें शास्त्र-प्रवचन हो और उसमें सब सम्मिलित हों। यहाँ पर एक दरिद्र आदमी था। उसके निर्वाहके लिए चन्दा इकट्ठा करनेकी बात जब कही तब एक महाशयने बड़े उत्साहके साथ कहा कि चन्दाकी क्या आवश्यकता है ? वर्षमें दो मास भोजन मैं करा दूंगा। उनकी बात सुनकर पाँच अन्य महाशयोंने भी दो मास भोजन कराना स्वीकार कर लिया। इस तरह हम दोनोंका यहाँ आना सार्थक हुआ। . उस समय हमारे मनमें विचार आया कि ग्रामीण जनता बहुत ही सरल और भोली होती है। उन्हें उपदेश देने वाले नहीं, अतः उनके मनमें जो आता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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