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________________ मेरी जीवनगाथा 170 सिंघईजी जाने या सेठजी जाने, यही कहते रहे, निर्णय कुछ भी नहीं हुआ। अन्तमें एकने कहा-'आप एकान्तमें आइये इसका रहस्य आपके ज्ञानमें आ जावेगा। मैं बड़ी उत्सुकतासे उनके साथ एकान्तमें चला गया। वहाँ आप कहते हैं-'क्या आप इनको जानते हैं ?' मैंने कहा-'अच्छी तरह जानता हूँ।' इनके एक लड़का है और इसका विवाह दलपतपुर हुआ'.....उन्होंने कहा। 'अच्छा, इससे क्या हुआ ?' सबका विवाह होता है, जो बात मर्मकी हो उसे कहो...मैंने कहा। लड़केकी औरत अत्यन्त सुन्दरी है। बस, यही अपराधका कारण है'...उन्होंने कहा। 'स्त्रीका सुन्दर होना इसमें क्या अपराध है....मैंने कहा । 'यही तो बात है क्या कहूँ ? आप तो लौकिक तत्त्वकी कुछ भी मीमांसा नहीं जानते। संसारमें पापकी जड़ तो यही है। यदि यह बात उसमें न होती तो कोई अपराध उसका न था। उस औरतकी सुन्दरताने ही इन लोगोंका विवाहमें आना-जाना बन्द करवाया है'....उन्होंने बड़ी गम्भीर मुद्रासे कहा ? फिर भी आपके कहनेसे कुछ भी बोध नहीं हुआ.....मैंने कहा ? 'बोध कहाँसे हो ? केवल पुस्तकें ही तो आपने पढ़ी हैं। अभी लौकिक शास्त्रसे अनभिज्ञ हो। अभी आप बुन्देलखण्डके पञ्चोंके जालमें नहीं आये। इसीसे यह सब परोपकार सूझ रहा है.....झुंझला कर उसने कहा ? 'भाई साहब मैं आपके कहनेका कुछ भी रहस्य नहीं समझा। कृपया शीघ्र समझा दीजिये। बहुत विलम्ब हुआ।.मैंने जिज्ञासा भावसे कहा ? 'जल्दी से काम नहीं चलेगा। यहाँ तो अपराधीको महीनों पञ्चोंकी खुशामद करनी पड़ती है तब कहीं उसकी बातपर विचार होता है, यह तो पञ्चोंकी अदालत है। वर्षों में जाकर मामला तय होता है।'... बड़े गर्वके साथ उसने कहा। ‘महाशय ! इन व्यर्थकी बातोंमें कुछ नहीं। उसकी औरत बहुत सुन्दर है। इसके बाद कहिये ........मैंने झुंझला कर कहा। 'जब वह मन्दिरमें, कुए पर या अन्य कहीं जाती है उसके पैरकी आहट सुनकर लोग उसके मुखकी ओर ताकने लगते हैं और जब वह अपने साथकी औरतोंके साथ वचनालाप करती है तब लोग कान लगाकर सुनने लगते हैं। मैं कहाँ तक कहूँ ? उसके यहाँ निमन्त्रण होता है तो लोग उसका हाथ देखकर मोहित हो जाते हैं। अन्य की क्या कहूँ ? मैं स्वयं एक बार उसके घर भोजनके लिए गया तो उसके पग देखकर मोहित हो गया। यही कारण है कि जिससे पञ्चोंने उसे विवाहमें बन्द कर दिया।.......उसने कहा। 'महाशय ! क्या कभी उसने पर पुरुषके साथ अनाचार भी किया ?'....मैंने पूछा । 'सो तो सुननेमें नहीं आया।'. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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