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परन्तु समय पर नहीं करते थे । मध्याह्न काल प्रायः चूक जाते थे । पर श्रद्धा ज्यों-की-त्यों थी। सबसे महती त्रुटि यह थी कि अष्टमी और चतुर्दशीको भी शिरमें तेल डालते थे । कच्चे जलसे स्नान करते थे। कहनेका तात्पर्य यह है कि मेरे व्रतमें चरणानुयोगकी बहुतसी गलतियाँ रहती थीं और उन्हें जानता भी था। परन्तु शक्तिकी हीनता जनित परिणामोंकी दृढ़ता न होनेसे यथायोग्य व्रत नहीं पाल सकता था, अतः धीरे-धीरे उनमें सुधार करने लगा । यह सब होने पर भी मनमें निरन्तर यथार्थ व्रत पालनेकी ही चेष्टा रहती थी और यह भी निरन्तर विचारमें आता रहता कि तुमने बालचन्द्रजी तथा बाईजीका कहना नहीं माना । उसीका यह फल है पर अब क्या होता है ?
पञ्चोंकी अदालत
पञ्चोंकी अदालत
एक बार हम और कमलापति सेठ बरायठामें परस्पर बातचीत कर रहे थे। सेठजीने कुछ गम्भीर भावसे कहा कि 'क्या कोई ऐसा उपाय है जिससे हमारे यहाँ विवाहमें स्त्रियोंका जाना बन्द हो जावे, क्योंकि जहाँ स्त्री समाजकी प्रमुखता होती है वहाँ अनेक प्रकारकी अनर्थोंकी सम्भावना सहज ही हो जाती है। प्रथम तो नाना प्रकारके भण्ड वचन उनके श्रीमुखसे निकलते हैं । द्वितीय इतर समाजके सम्मुख नीचा देखना पड़ता है । अन्य समाजके लोग बड़े गर्वके साथ कहते हैं कि तुम्हारी समाजकी यही सभ्यता है कि स्त्री समाज निर्लज्ज होकर भण्ड गीतोंका अलाप करती है।' मैंने कहा- 'उपाय क्यों नहीं है ? केवल प्रयोगमें लानेकी कमी है। आज शामको इस विषयकी चर्चा करेंगे।'
निदान हम दोनोंने रात्रिको शास्त्र - प्रवचनके बाद इसकी चर्चा छेड़ी और फलस्वरूप बहुत कुछ विवादके बाद सबने विवाहमें स्त्री समाजका न जाना स्वीकार कर लिया। इसके बाद दूसरे दिन हम दोनों नीमटोरिया आये । यहाँ पर बरायठा ग्रामसे एक बारात आई थी । यहाँ पर जो लड़कीका मामा था उससे मामूली अपराध बन गया था, अतः लोगोंने उसका विवाहमें आना-जाना बन्द कर दिया था। उसकी पञ्चायत हुई और किसी तरह उसे विवाह में बुलाना मंजूर हो गया ।
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नीमटोरियासे तीन मील हलवानी ग्राम, यहाँ पर एक प्रतिष्ठित जैनी रहता था, उसे भी लोग विवाहमें नहीं बुलाते थे । उसकी भी पञ्चायतकी गई। मैंने पञ्चसे पूछा- 'भाई ! इनका क्या दोष है ?' पञ्चोंने कहा - 'कोई दोष नहीं।' मैंने कहा - 'फिर क्यों नहीं बुलाते ?' अमुक पटवारी जाने, अमुक
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