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________________ वृत्त 167 करनेवालेके ही यहाँ भोजन करेंगे। यदि अधिक आग्रह करेंगे तो लोग तुम्हारे समक्ष प्रतिज्ञा भी धारण कर लेवेंगे। परन्तु वह नाममात्रकी प्रतिज्ञा होगी। जैसे वर्तमानमें मनुष्य मुनिराजके समक्ष भी प्रतिज्ञा कर लेते हैं कि आजन्म शूद्र जलका त्याग है, अन्न-जल ग्रहण कीजिये । पश्चात् उन्हें इस प्रतिज्ञाके तोड़नेमें कोई प्रकारका भय नहीं रहता। यही हाल आपके अष्टमूलगुणोंका होगा । आप जानते हैं - १०० में ६० अस्पतालकी दवा सेवन करते हैं । उनके अष्ट मूलगुण कहाँ हो सकते हैं ? इसके सिवाय इस कालमें न्यायोपार्जित धनके द्वारा निष्पन्न आहारका मिलना प्रायः दुर्लभ है, क्योंकि गरीबोंको जाने दीजिये, बड़े-बड़े रईस लोग भी आज जिस छल और शुद्रतासे द्रव्यका संचय करने लगे हैं उनका विचार करो तो शरीर रोमांचित हो जाय। जब अन्न-जलादिकी व्यवस्थामें इतनी कठिनाई है तब बिना विचारे व्रत लेना मैं तो योग्य नहीं समझता। व्रत उत्तम है, परन्तु यथार्थ रीतिसे पालन किया जाना चाहिये । केवल लौकिक मनुष्योंमें यह प्रसिद्ध हो जावे कि अमुक मनुष्य व्रती है.... ...इसी दृष्टिसे व्रती होना कहाँ तक योग्य है ? मैं यह भी मानता हूँ कि आप साक्षर हैं तथा आपका पुण्य भी विशिष्ट है, अतः आपकी व्रत शिथिलता भी आपकी प्रतिष्ठामें बाधक न होगी। मैं किसीकी परीक्षा लेनेमें संकोच नहीं करता, परन्तु आपके साथ कुछ ऐसा स्नेह हो गया है कि आपके दोष देखकर भी नहीं कह सकता। इसीसे कहता हूँ कि यदि आप सदोष भी व्रत पालेंगे तो प्रशंसाके पात्र होंगे। परन्तु परमार्थसे आप उस व्रतके पात्र नहीं । प्रथम तो आपमें इतनी अधिक सरलता है कि प्रत्येक मनुष्य आपके प्रभावमें आ जाता है । फिर आपकी प्रतिभा और आगमका ज्ञान इतना अधिक है कि लोग आपके समक्ष मुँह भी खोलनेमें संकोच करते हैं, परन्तु इससे क्या व्रतमें यथार्थता आ सकेगी ? आप यह स्वयं जानते हैं कि व्रत तो वह वस्तु है कि जिसकी यथार्थता होनेपर संसार-बन्धन स्वयमेव खुल जाता है, अतः मेरी यही सम्मति है कि ज्ञानको पाकर उसका दुरुपयोग न करो। मुझे श्री कुन्दकुन्द महाराजके इन वचनोंकी स्मृति आती है कि 'हे प्रभो ! मेरे शत्रुको भी द्रव्यलिंग न हो।' इसलिये आप कुछ दिन तक अभ्यास रूपसे व्रतोंका पालन करो । पश्चात् जब सम्यग् अभ्यास हो जावे तब व्रत ग्रहण कर लेना । बस, अब आपकी जो इच्छा हो सो करो ।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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