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________________ 166 मेरी जीवनगाथा चाहिये। मैं आपको इसलिये नहीं रोकता कि आप संयम अंगीकृत न करें। संयम धारण करनेमें जो शान्ति मिलती है वह इन पञ्चेन्द्रियोंके विषयोंमें नहीं, अतः संयम धारण करना आवश्यक है । परन्तु संयम होना चाहिये । नाममात्रके संयमसे आत्माका सुधार नहीं होता। अभी हम लोग संयमको खेल समझते हैं, पर संयमकी उत्पत्ति सरल नहीं। उसके लिये तो हमें सर्व प्रथम अनादिकालसे जो पर पदार्थों में आत्मबुद्धि हो रही है उसे छोड़ना होगा। कहनेको तो प्रत्येक कह देता है कि शरीर जड़ है, हम चेतन हैं । परन्तु जब शरीरमें कोई व्याधि आती है तब हे माँ! हे दादा ! हे भगवन् हमारी रक्षा करो। वैद्यराज ! ऐसी औषधिका प्रयोग करो कि जो शीघ्र ही रोगसे मुक्त कर दे.... आदि दीनतापरक शब्दोंकी झड़ी लगा देते हैं । यदि यथार्थमें शरीरको पर समझते तब इतनी आकुलता क्यों ? बस छलसे यही उत्तर दिया जाता है कि क्या करें ? चारित्रमोहकी प्रबलता है, हम तो श्रद्धामें पर ही मानते हैं । कुछ शास्त्रका बोध हुआ तो बलभद्र और नारायणके मोहकी कथा सुना दी । यहाँ मेरा यह तात्पर्य नहीं कि सम्यग्दृष्टि वेदना आदिका इलाज नहीं करता । परन्तु बहुतसे मनुष्य छलसे ही वाक्यपटुता द्वारा सम्यग्ज्ञानी बननेकी चेष्टा करते हैं । अतः सबसे पहले तो अभिप्राय निर्मल होनेकी आवश्यकता है । अनन्तर पञ्चेन्द्रियोंके विषयमें स्वेच्छाचारिता न होनी चाहिये । फिर वचनकायकी चेष्टा योग्य होनी चाहिये और मनमें निरन्तर उत्तम विचारोंका प्रचार होना चाहिये। इन सब योग्यताओंके अनन्तर द्रव्यादि चतुष्टयकी योग्यताका विचारकर संयम धारण करना चाहिये तथा चित्तमें कोई शल्य भी न हो, तभी संयम ग्रहण करना लाभदायक होगा। I I आप जानते हैं कि वर्तमानमें न तो लोगोंके शुद्ध भोजनकी प्रवृत्ति रह गई है और न अष्ट मूलगुण धारण करनेकी प्रवृत्ति ही रही है। इनके बल पर ही तो आपको देशसंयम सुरक्षित रह सकेगा । यद्यपि बाईजीकी पूर्ण योग्यता है। परन्तु अब उनका जीवन बहुत थोड़ा है, अतः उनके पश्चात् तुम्हें पराधीन होना पड़ेगा। तुम्हारा ख्याल है कि मैं अपना ही क्या, दो अन्य त्यागियोंका भी बाईजीके द्रव्यसे निर्वाह कर सकता हूँ । परन्तु बहुत अंशोंमें तो तुमने उसे पहले ही व्यय कर दिया। यह मैं मानता हूँ कि अब भी जो अवशिष्ट है वह तुम्हारे लिये पर्याप्त है । परन्तु मैं हृदयसे कहता हूँ कि बाईजीके स्वर्गवासके बाद तुम उसमें का एक पैसा भी न रक्खोगे और उस हालतमें तुम्हें पराधीन ही रहना पड़ेगा। उस समय यह नहीं कह सकोगे कि हम अष्ट मूलगुण धारण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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