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________________ निवृत्तिको ओर 165 आपके व्यवहारसे हम आपकी अन्तरंग परिणतिको जानते हैं और उसके आधार पर कह सकते हैं कि आप अभी व्रत लेनेके पात्र नहीं। यह हम अच्छी तरह जानते हैं कि आपकी प्रवृत्ति इतनी सरल है कि मनुष्य उससे अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं; अतः आप इन्हीं अनुचित कार्यों से खिन्न होकर व्रत लेनेके सम्मुख हुए हैं। आशा है आप हमारी बात पर पूर्ण रीतिसे विचार करेंगे।' मैंने कहा-'आपका कहना अक्षरशः सत्य है। परन्तु मेरी आत्मा यदि व्रत न लेवेगी तो बहुत खिन्न रहेगी, अतः अब मैं किसी विशेष त्यागीके पास व्रत ले लूँगा। कुछ नहीं होगा तो न सही, पर मेरी जो यह बाह्य प्रवृत्ति है वह तो छूट जावेगी और जो व्यर्थ व्यय होता है उससे बच जाऊँगा। मेरा विश्वास है कि मेरी यह प्रवृत्ति बाईजीको भी अच्छी लगेगी। अभी तक मैंने जो पाया सो व्यय किया। अब परिमित व्यय होने लगेगा तथा जहाँ तक मुझसे बनेगा व्रतमें शिथिलता न करूंगा।' श्री बालचन्द्रजी साहबने कहा-कहने और करनेमें महान् अन्तर होता है | कौन मनुष्य नहीं चाहता कि मैं सुमार्गमें न लगूं। जिस समय शास्त्रप्रवचन होता है और वक्ताके मुखसे संसारकी असारताको सुनते हैं उस समय प्रत्येकके मनमें यह आ जाता है कि संसार असार है, कोई किसीका नहीं, सब जीव अपने-अपने कर्मों के आधीन हैं, व्यर्थ ही हम कलत्रपुत्रादिके स्नेहमें अपनी मनुष्य पर्यायकी योग्यताको गमा रहे हैं, अतएव सबसे ममता त्यागकर दैगम्बरी दीक्षाका अवलम्बन कर लें। परन्तु जहाँ शास्त्र-प्रवचन पूर्ण हुआ कि आठ आना भर भाव रह गये, भजन होनेके बाद चार आना भाव रह गये, बिनती होने तक दो आना और शास्त्र विराजमान होते-होते यह भी भाव चला गया......यह आजके लोगोंकी परिणति है। अभी तुम्हें जो उत्साह है, व्रत लेनेके बाद उससे आधा रह जावेगा। और चार या छ: मासके बाद चौथाई रह जावेगा। हाँ, यह अवश्य है कि लोकभयसे व्रतका पालन करोगे, परन्तु जो परिणाम आज है वे फिर न रहेंगे। भले ही आज आपके परिणाम अत्यन्त स्वच्छ क्यों न हों, परन्तु यह निश्चय है कि कालान्तरमें उनका इसी प्रकार स्वच्छ रहा आना कठिन है। ऐसा एकान्त भी नहीं कि सभीके परिणाम गिर जाते हैं, परन्तु आधिक्य ऐसा देखा जाता है। श्री भरतके सदृश सभी जीव अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञान उपार्जन कर लें, यह कठिन है। प्रथम बार सप्तम गुणस्थान होनेमें जो परिणाम होते हैं वे छठवेंसे सप्तम गुणस्थान होनेमें नहीं होते, अतः विचार कर कार्य करना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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