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________________ 164 मेरी जीवनगाथा पास कुछ पैसा हुआ, लोग उसे पुण्यशाली पुरुष कहने लगते हैं। क्योंकि उनके द्वारा सामान्य मनुष्यों को कुछ सहायता मिलती है और वह इसलिये मिलती है कि सामान्य मनुष्य उन धनाढ्योंकी असत् प्रशंसा करें। यह लोक जो कि धनाढ्यों द्वारा द्रव्यादि पाकर तुष्ट होते हैं, चारण लोगोंका कार्य करते हैं । यदि यह न हो तो उनकी पोल खुल जावे। बड़े-बड़े प्रतिभाशाली कविराज जरा-सी द्रव्य पानेके लिये ऐसे-ऐसे वर्णन करते हैं कि साधारणसे साधारण धनाढ्यको इन्द्र, धनकुबेर तथा दानवीर कर्ण आदि कहने में भी नहीं चुकते । यद्यपि यह धनाढ्यलोग उन्हें धन नहीं देना चाहते तथापि अपने ऐबों-दोषोंको छिपानेके लिये लाखों रुपये दे डालते हैं । उत्तम तो यह था कि कवियोंकी प्रतिभाका सदुपयोग कर स्वात्माकी परिणतिको निर्मल बनानेकी चेष्टा करते । परन्तु चन्द चाँदीके टुकड़ोंके लोभसे लालायित होकर अपनी अलौकिक प्रतिभा विक्रय कर देते हैं । ज्ञान प्राप्तिका फल तो यह होना उचित था कि, संसारके कार्योंसे विरक्त होते, पर वह तो दूर रहा, केवल लोभके वशीभूत होकर आत्माको बाह्य पदार्थोंका अनुरागी बना लेते हैं। अस्तु, मिथ्यात्व परिग्रहका अभाव हो जाने पर भी यद्यपि परिग्रहका सद्भाव रहता है तथापि उसमें इसकी निजत्व कल्पना मिट जाती है, अतः सब परिग्रहोंका मूल मिथ्यात्व ही है । जिन्हें संसारबन्धनसे छूटनेकी अभिलाषा है उन्हें सर्वप्रथम इसीका त्याग करना चाहिये, क्योंकि, इसका त्याग करनेसे सब पदार्थोंका त्याग सुलभ हो जाता है।..... इस प्रकार बाईजीने अपनी सरल, सौम्य एवं गम्भीर मुद्रामें जो लम्बा तत्त्वोपदेश दिया था उसे मैंने अपनी भाषामें यहाँ परिव्यक्त करनेका प्रयत्न किया है। मैंने कहा-'बाईजी ! आखिर हम भी तो मनुष्य हैं। मनुष्य ही तो महाव्रत धारण करते हैं और अनेक उपसर्ग-उपद्रव आने पर भी अपने कर्त्तव्यसे विचलित नहीं होते। उनका भी तो मेरे ही जैसा औदारिक शरीर होता है । फिर मैं इस जरासे व्रतको धारण न कर सकूँगा ?' 1 बाईजी चुप ही रहीं, पर श्रीबालचन्द्रजी सवालनवीस बोले- 'जो आपकी इच्छा हो, सो करो । परन्तु व्रतको लेकर उसका निर्वाह करना परमावश्यक है शीघ्रता करना अच्छा नहीं। हमने अनादि कालसे यथार्थ व्रत नहीं पाला । यों तो द्रव्यलिंग धारणकर अनन्तबार यह जीव ग्रैवेयक तक पहुँच गया, परन्तु सम्यग्ज्ञान पूर्वक चारित्रके अभावमें संसार बंधनका नाश नहीं कर सका । आपने जैनागमका अभ्यास किया है और प्रायः आपकी प्रवृत्ति भी उत्तम रही है । परन्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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