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निवृत्तिकी ओर
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मिथ्यात्वका निर्वचन भी सम्यक्त्वकी तरह ही दुर्लभ है, क्योंकि ज्ञानगुणके बिना जितने अन्य गुण हैं वे सब निर्विकल्पक हैं। ज्ञान ही एक ऐसी शक्ति आत्मामें है जो सबकी व्यवस्था बनाये है। यही एक ऐसा गुण है जो परकी भी व्यवस्था करता है और अपनी भी। मिथ्यात्वके कार्य जो अतत्त्वश्रद्धानादिक हैं वे सब ज्ञानकी पर्याय है। वास्तवमें मिथ्यात्व क्या है वह मतिश्रुतज्ञानके गम्य नहीं। उसके कार्यसे ही उसका अनुमान किया जाता है। जैसे वातरोगसे शरीरकी सन्धि सन्धिमें वेदना होती है। उस वेदनासे हम अनुमान करते हैं कि हमारे वातरोग है। वातरोग का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। ऐसे ही कुगुरु और कुधर्मके माननेका भी हमारा परिणाम होता है उससे मिथ्यात्वका अनुमान होता है। वास्तवमें उसका प्रत्यक्ष नहीं होता। अथवा शरीरमें जो अहम्बुद्धि होती है वह मिथ्यात्वके उदयमें होती है, अतः उस अहम्बुद्धिसे मिथ्यात्वका अनुभव होता है। वस्तुतः उसका प्रत्यक्ष नहीं होता, क्योंकि वह गुण निर्विकल्पक है। इस तरह यह परिग्रह आत्माके सम्पूर्ण परिग्रहोंका मूल है। जब तक इसका त्याग नहीं तब तक आत्मा संसारका ही पात्र रहता है। इसके जानेसे ही आत्मा मोक्षमार्गके पथपर चलनेका अधिकारी हो सकता है। जबतक सम्यग्दर्शन न हो तब तक यह जीव न तो गृहस्थ धर्मका अधिकारी हो सकता है और न ऋषिधर्मका। ऊपरमें चाहे गृहस्थ रहे, चाहे मुनिवेष धारण कर ले, कौन रोक सकता है ?
___ जन्मसे शरीर नग्न ही होता है। अनन्तर जिस वातावरणमें इसका पालन होता है, तद्रूप इसका परिणमन हो जाता है। देखा गया है कि राजाओंके यहाँ जो बालक होते हैं उनको घाम और शीतसे बचानेके लिये बड़े-बड़े उपाय किये जाते हैं। उनके भोजनादिकी व्यवस्थाके लिये हजारों रुपये व्यय किये जाते हैं। उनको जरा-सी शीत बाधा हो जाने पर बड़े-बड़े वैद्यों व डाक्टरोंकी आपत्ति आ जाती है। वही बालक यदि गरीबके गृहमें जन्म लेता है तो दिन-दिन भर सरदी और गरमीमें पड़ा रहता है। फिर भी राजा बालककी अपेक्षा कहीं अधिक हृष्ट पुष्ट रहता है। प्राकृतिक शीत और उष्ण उसके शरीरकी वृद्धिमें सहायक होते हैं। यदि कभी उसे जूड़ी-सरदी सताता है तो लोंग घिसकर पिला देना ही नीरोगताका साधक हो जाता है। जो-जो वस्तुजात धनाढ्योंके बालकोंको अपकारक समझे जाते हैं वही-वही वस्तुजात निर्धनोंके बालकोंके सहायक देखे जाते हैं। जगत्की रीति ऐसी विलक्षण है कि जिसके
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