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________________ निवृत्तिकी ओर Jain Education International किया ? यह मनोज अत्यन्त निर्दय है । यह इतना भयानक पाप है कि इसके वशीभूत होकर मनुष्य अन्धा हो जाता है । माता, पुत्री, भगिनी आदि किसीको नहीं गिनता । इसीलिये तो ऋषियोंने यहाँ तक आज्ञा दी है कि एकान्तमें अपनी माँ तथा सहोदरी आदिसे भी सम्भाषण न करो। अतः आप कुटीके भीतर ही पेशाब कर लीजिये। मैं प्रातः कालके पहले कपाट न खोलूँगी ।' साधु महाराज उसके निराशापूर्ण उत्तरसे खिन्न होकर बोले- 'हम तुझे शाप दे देंगे। तुझे कष्ट हो जावेगा ।' स्त्री बोली- 'इन भर्त्सनाओंको छोड़ो। यदि इतनी तपस्या होती तो कपाट न खोल लेते। केवल गप्पोंसे कुछ नहीं होगा ।' जब साधु महाराजको कुछ उपाय नहीं सूझ पड़ा तब वे कुटीका छप्पर काटकर काम-वेदना शान्त करनेके लिये बाहर आये और इतनेमें ही क्या देखते हैं कि वहाँ पर स्त्री नहीं है । वही पण्डित (लेखक) जो दो वर्ष पहले आया था पुस्तक खोले खड़ा है और कह रहा है कि 'महाराज ! इस पुस्तक पर लिखा हुआ यह श्लोक 'बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वान्समपकर्षति' लिखा रहने दें या पुनः लिख लेवें ।' साधुने लज्जित भावसे उत्तर दिया- ' बेटा ! यह श्लोक तो स्वर्णाक्षरमें लिखने योग्य है ।' यदि परमार्थदृष्टिसे देखा जावे तो विकार कोई वस्तु नहीं, क्योंकि औपाधिक पर्याय है । परन्तु जब तक आत्माकी इसमें निजत्व बुद्धि रहती है तब तक वह संसारका ही पात्र रहता है । इस प्रकार मैथुनसंज्ञासे संसारके सब जीवोंकी दुर्दशा हो रही है । इसी तरह परिग्रहसंज्ञासे संसारमें नाना अनर्थ होते हैं । इसका लक्षण श्रीउमास्वामीने तत्त्वार्थसूत्रमें 'मूर्च्छा परिग्रहः' कहा है । 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इस सूत्रसे प्रमत्तयोगकी अनुवृत्ति आती है और तब 'प्रमत्तयोगात् मूर्च्छा परिग्रहः' इतना लक्षण हो जाता है। वस्तुतः अनुवृत्ति लानेकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मूर्च्छाके लक्षणमें ही 'प्रमत्तयोग' शब्द पड़ा हुआ है। 'ममेदं' बुद्धि लक्षण ही परिग्रह है अर्थात् पर पदार्थमें 'यह मेरा है' ऐसा जो अभिप्राय है वही मूर्च्छा है। यह भाव बिना मिथ्यात्वके होता नहीं । पर पदार्थको आत्मीय मानना ही मिथ्यात्व है । यद्यपि पर पदार्थ आत्मा नहीं हो जाता तथापि मिथ्यात्वके प्रभावसे हमारी कल्पनामें वह आत्मा ही दीखता है। जैसे मनुष्य रज्जुमें सर्प भ्रान्ति हो जानेके कारण भयसे पलायमान होने लगता है । परन्तु रज्जु रज्जु ही 161 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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