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मेरी जीवनगाथा
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बोली- 'महाराज ! निष्ठुर न बनो। आप तो साधु हैं, समदर्शी हैं। हम लोग तो आपको पिता तुल्य मानते हैं। सुमेरु भले ही चलायमान हो जावे और सूर्योदय पूर्वसे न होकर भले ही पश्चिमसे होने लग जाय । पर साधु महानुभावोंका मन कदापि विचलित नहीं होता, अतः महाराज ! उचित तो यह था कि मैं दिन भर की थकी आपके आश्रममें आई, इसलिए आप मेरे खाने-पीनेकी व्यवस्था करते परन्तु वह दूर रहा, आप तो रात्रिभर ठहरनेकी भी आज्ञा नहीं देते । सत्य है - विपत्ति कालमें कोई भी सहायक नहीं होता। आपकी जो इच्छा हो, सो कहिये, परन्तु मैं तो इस वृक्ष तलसे आगे एक कदम भी नहीं जाऊँगी, भूखी प्यासी यहीं पड़ी रहूँगी ।
जब साधु महाराजने देखा कि यह बला टलनेवाली नहीं, तब चुपचाप कुटियाका दरवाजा बन्द कर सो गये। जब १० बज गये, जंगलमें सुनसान हो गया और पशु-पक्षीगण अपने-अपने नीड़ों पर नीरव शयन करने लगे तब वह शृंगार रसमय गाना गाने लगी। वह गाना इतना आकर्षक और इतना सुन्दर था कि जिसे श्रवण कर अच्छे-अच्छे पुरुषोंके चित्त चंचल हो जाते ।
साधु महाराजने ज्योंही गाना सुना, त्यों ही कामवेदनासे पीड़ित हो उठे - अपने आपको भूल गये। वे रूप तो दिनमें देख ही चुके थे। उतने पर रजनीकी नीरव बेला थी । किसीका भय था नहीं, अतः कुटीके कपाट खोल कर ज्यों ही बाहर आनेकी चेष्टा करने लगे त्यों ही उसने बाहरकी साँकल बन्द कर दी। बाबाजीने आवाज लगाई - 'बेटी ! कपाट किसने लगा दिया ? मुझे पेशाबकी बाधा है।' स्त्री बोली- 'पिताजी! मैंने ।' साधु महाराजने कहा-'बेटी ! क्यों लगा दी' उसने दृढ़ताके साथ उत्तर दिया- 'महाराज आखिर आप पुरुष ही तो हैं। पुरुषोंका क्या भरोसा ? रात्रिका मध्य है, सुनसान एकान्त है । यदि आपके चित्तमें कुछ विकार हो जावे तो इस भयानक बनमें मेरी रक्षा कौन करेगा ?' साधु बोले- 'बेटी ! ऐसा दुष्ट विकल्प क्यों करती हो ?' स्त्री बोली- 'यह तो आप ही जानते हैं । आप ही अपने मनसे पूछिये कि मेरे ऐसा विकल्प क्यों हो रहा है ? आपके हृदयमें कलंकमय भाव उत्पन्न हुए बिना मेरा ऐसा भाव नहीं हो सकता।' साधु बोले- 'बेटी ! मैं शपथपूर्वक कहता हूँ और परमात्मा इसका साक्षी है कि मैं कदापि तेरे साथ दुर्व्यवहार न करूँगा ।' स्त्री बोली- 'आप सत्य ही कहते हैं, परन्तु मेरा चित्त इस विषयमें आज्ञा नहीं देता । क्या आपने रामायणमें नहीं पढ़ा कि सीताहरणके लिए रावणने कितना मायाचार
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