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________________ निवृत्तिकी ओर 159 भी आकर्षित कर लेता है-उनके चित्तको विहल बना देता है। एक बार वह लेखक ग्रामान्तर जा रहा था। अरण्यमें एक साधु मिला। लेखकने साधुको प्रणाम कर अपनी पुस्तक दिखलाई। ज्यों ही साधुकी दृष्टि पुस्तकके ऊपर लिखे हुए 'बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वान्समपकर्षति' वाक्य पर पड़ी, त्यों ही वह चौंककर बोले-'बेटा ! यह क्या लिखा है ?' कहीं विद्वान् भी इन्द्रियोंके वशीभूत होते हैं, अतः विद्वान्को काटकर उसके स्थान पर मूर्ख लिख दो।' लेखक बोला-'बाबा जी ! मेरा अनुभव तो ठीक है। यदि आपको इष्ट नहीं हो तो मिटा दीजिये।' बाबाजीने उसे पानीसे धो दिया। लेखकके मनमें बहुत दुःख हुआ। यद्यपि उसने अपनी बात सिद्ध करनेके लिए बहुतसे दृष्टान्त दिये तो भी साधुके मनमें एक भी नहीं आया। लेखक वहाँसे चला और भ्रमण करता हुआ बनारस पहुँचा। वहाँ पर उसने बहुरूप बनानेमें निष्णात मनुष्यके पास रहकर एक वर्षके अन्दर स्त्री वेष रखनेकी कला सीखी और एक वर्ष तक वेश्याओंके पास रहकर गान-विद्यामें निपुणता प्राप्त की। अब वह स्त्री जैसा रूप रखने और वेश्या जैसा गानेमें पटु हो गया। उसके मनमें साधुके समक्ष अपनी पुस्तकके पूर्व वाक्यकी यथार्थता सिद्ध करनेकी चिन्ता लगी हुई थी, अतः वह उसी रास्तासे लौटा । बाबाजीकी कुटिया आनेके पहले ही उसने एक सुन्दर युवतीका रूप धारण कर लिया, अतः यहाँसे अब उसके लिए स्त्रीलिंगका ही प्रयोग किया जायगा। वह युवती गाना गाती हुई बाबाजीकी कुटीके पास जब पहुंची, तब दिन बहुत ही थोड़ा रह गया था। वह आश्रय पानेकी इच्छासे कुटियाके पास बैठनेको हुई कि बाबाजीने तिरस्कारके साथ कहा-'यहाँसे चली जाओ, यहाँ स्त्रीसमाजको आनेका अधिकार नहीं।' स्त्री युवतीने बड़ी दीनतासे कहा'महाराज ! मैं अबला हूँ, रूपवती हूँ, दिन थोड़ा रह गया है, अँधेरी रात आनेवाली है और सघन वन है। आगे जाने पर न जाने कौन मुझे हरण कर लेगा ? यदि मनुष्यसे बच भी गई तो भी कोई हिंसक जन्तु खा जावेगा। आप अनाथोंके नाथ साधु हैं, अतः मेरे ऊपर दया कीजिये। कोई श्राप देनेवाला नहीं। मैं इसी वृक्षके नीचे आपकी छत्रछाया में पड़ी रहँगी। आपके भजनमें मेरे द्वारा कोई बाधा न होगी।' महाराज बोले-'हम यहाँ मनुष्य तकको नहीं रहने देते फिर तुम तो स्त्री हो । स्त्री ही नहीं, युवती हो, युवती नहीं, रूपवती भी हो, अतः इस स्थान पर नहीं रह सकती। आगे जाओ, अभी काफी दिन है। स्त्री Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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