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मेरी जीवनगाथा
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कोटपाल बुलाया गया। राजाने उससे कहा कि यह फल तुमने वेश्याको दिया है ?' कोटपाल बोला-'हाँ, महाराज ! दिया है।' राजाने फिर पूछा-'तुमने कहाँसे पाया ?' सच-सच कहो, अन्यथा देशनिष्कासन दण्डके पात्र होगे।' कोटपालने कम्पित स्वरमें कहा-'अन्नदाता ! अपराध क्षमा किया जाय' आपकी महारानीका मेरे साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। उन्होंने मुझे यह फल दिया है। उनके पास कहाँसे आया, यह मैं नहीं जानता। दासीको आज्ञा हुई कि इसी समय महारानीको लाओ। दासी जाती है और महाराजका सन्देश सुनाती है। रानी एकदम भयभीत हो जाती है, परन्तु महाराजकी आज्ञा थी, अतः शीघ्रता से दरबारमें जाती है।
महाराजने प्रश्न किया कि 'यह फल तुमने कोटपालको दिया है ? रानी बोली-'हॉ, महाराज दिया है, क्योंकि आपकी अपेक्षा मेरा कोटपालसे अधिक स्नेह है, यह भी दबी जबानसे कहती हूँ। सच पूछिये तो आपसे मेरा अणुमात्र भी स्नेह नहीं है। मेरा सोलह आना स्नेह कोटपालसे है। आपको तो मैं बाधक ही समझती हूँ। अब आपकी जो इच्छा हो, सो कीजिये । तथ्य बात जो थी वह आपके समक्ष रख दी। यह क्यों ? इसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं। अग्नि गर्म होती है, जल ठण्डा होता है, नीम कड़वा होता है और साँटा मीठा होता है, इसमें कोई प्रश्न करे तो उसका उत्तर यही है कि प्रकृतिका ऐसा ही परिणमन है। हम संसारी आत्मा हैं, रागादिसे लिप्त हैं। जो हमारी रुचिके अनुकूल हुआ उसीको इष्ट मानते हैं। राजा सुनकर खामोश रहे और बोले-'बहुत ठीक। उसी समयका यह श्लोक है-'यां चिन्तयामि सततं'
अर्थात् जिस रानीको मैं रात्रिदिन चिन्तना करता हूँ वह रानी मुझसे विरक्त होकर अन्यमें आसक्त है और वह पुरुष भी अन्य वेश्यामें आसक्त है एवं वह वेश्या भी मुझमें आसक्त है, अतः उस वेश्याको धिक्कार हो, उस कोटपालको धिक्कार हो, मदनको धिक्कार हो, इस मेरी रानीको धिक्कार हो और मुझको धिक्कार हो। जिसने ऐसा मनुष्य जन्म पाकर यों ही विषयोंमें गमा दिया..... इत्यादि विचार कर राजाने राज्य छोड़ साधु वेषधारण कर लिया। इसी विषयका एक और भी उपाख्यान प्रसिद्ध है। एक लेखकने एक पुस्तक रचकर उसके ऊपर यह वाक्य लिखा
___'बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वान्समपकर्षति' अर्थात् इन्द्रियोंका समूह इतना बलवान् है कि वह बड़े-बड़े विद्वानोंको
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