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________________ निवृत्तिकी ओर 157 अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या धिक्तां च तं च मदनं च इमां च मां च ।।' इसका स्पष्ट अर्थ यह है-एक समय एक बनपालने अमृतफल लाकर महाराज भर्तृहरिको भेंट किया। महाराज उन बनपालसे पूछते हैं कि 'इस फलमें क्या गुण हैं ?' बनपाल उत्तर देता है-'महाराज ! इसे खानेवाला सदा तरुण अवस्थासे सम्पन्न रहेगा। राजाने अपने मनसे परामर्श किया कि यह फल किस उपयोगमें लाना चाहिए ? मन उत्तर देता है कि आपको सबसे प्रिय धर्मपत्नी है, उसे देना अच्छा होगा, क्योंकि उसके तरुण रहनेसे आपकी विषय-पिपासा निरन्तर पूर्ण होती रहेगी। संसारमें इससे उत्कृष्ट सुख नहीं। मोक्ष-सुख आगम-प्रतिपाद्य कल्पना है, पर विषयसुख तो प्रत्येककी अनुभूतिका विषय है। राजाने मनकी सम्मत्यनुसार महारानीको बुलाकर वह फल दे दिया। रानीने कहा-'महाराज हम तो आपकी दासी हैं और आप करुणानिधान जगतके स्वामी हैं, अतः यह फल आपके ही योग्य है। हम सब आपकी सुन्दरताके भिखारी हैं, अतः इसका उपयोग आप ही कीजिए और मेरी नम्र प्रार्थनाकी अवहेलना न कीजिए।' राजा इन वाक्योंको श्रवण कर अत्यन्त प्रसन्न हुए। परन्तु इस गुप्त रहस्यको अणुमात्र भी नहीं समझे, क्योंकि कामी मनुष्य हेयाहेयके विवेकसे शून्य रहते ही हैं। रानीके मनमें कुछ और था और वचनोंसे कुछ और ही कह रही थी। किसीने ठीक कहा है कि 'मायावी मनुष्यों के भावको जानना सरल बात नहीं।' __राजाने बड़े आग्रहके साथ वह फल रानीको दे दिया। रानी उसे पाकर मनमें बहुत प्रसन्न हुई। रानीका कोटपालके साथ गुप्त सम्बन्ध होनेके कारण अधिक प्रेम था, इसलिए उसने वह फल कोटपालको दे दिया। कोटपालने कहा-'महारानी हम तो आपके भृत्य हैं, अतः आप ही उपयोगमें लावें।' पर रानीने एक न सुनी और वह फल उसे दे दिया। कोटपालका अत्यन्त स्नेह एक वेश्याके साथ था, अतः उसने वह फल वेश्याको दे दिया। उस वेश्याका अत्यन्त स्नेह राजासे था, अतः उसने वह फल राजाको दे दिया। फल हाथमें आते ही महाराजाकी आँखें खुली। उन्होंने वेश्यासे पूछा कि सत्य कहो यह फल कहाँसे आया ? अन्यथा शूलीका दण्ड दिया जायेगा। वेश्या कम्पित स्वरमें बोली-'महाराज ! अपराध क्षमा किया जावे। आपका जो नगरकोटपाल है उसका मेरे साथ अत्यन्त स्नेह है, उसीने मुझे यह फल दिया है। उसके पास कहाँसे आया, यह वह जाने। उसी समय www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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