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मेरी जीवनगाथा
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पर्याय छूटती है तब यही कल्पना होती है कि स्वर्गलोकमें जन्म हो तो भद्र-भला है। दुर्गतिमें जन्म न हो, अन्यथा नाना दुःखोंका पात्र होना पड़ेगा। इसी प्रकार मेरा कोई त्राता नहीं, असाताके उदयमें नाना प्रकारकी वेदनाएँ होती हैं, यह वेदना भय है। कोई त्राता नहीं, किसकी शरणमें जाऊँ, यह अशरण-असुरक्षाका भय है। कोई गोप्ता नहीं, यही अगुप्ति भय है। आकस्मिक वज्रपातादिक न हो जावे, यह आकस्मिक भय है और मरण न हो जावे, यह मृत्युका भय है।..... इन सप्त भयोंसे यह जीव निरन्तर दुःखी रहता है। भयके होने पर उससे बचनेकी इच्छा होती है और उससे जीवन निरन्तर आकुलित रहता है। इस तरह यह भय संज्ञा अनादिकालसे जीवोंके साथ चली आ रही है।
इसी प्रकार जब वेदका उदय होता है तब मैथुन संज्ञाके वशीभूत होकर यह जीव अत्यन्त दुःखी होता है। पुरुषवेदके उदयमें स्त्री-रमणकी वाञ्छा होती है। स्त्रीवेदके उदयमें पुरुषके साथ रमणकी इच्छा होती है। इस प्रकार इस संज्ञासे संसारी जीव निरन्तर बेचैन रहता है।
___ यद्यपि आत्माका स्वभाव इन विकारोंसे अलिप्त है तथापि अनादि कालसे मिथ्याज्ञानके वशीभूत होकर इन्हीमें चैन मान रहा है। इसके वैभवके सामने बड़े-बड़े पदवीधर नत मस्तक हो गये। रावण कितना विवेकी जीव था, परन्तु इसके चक्रमें पड़कर असह्य वेदनाओंका पात्र हुआ। भर्तृहरिने ठीक ही कहा है
'मत्तेभकुम्भदलने भुवि सन्ति शूराः
केचित्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः । किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य
कन्दर्पदर्पदलने बिरला मनुष्याः ।।' इसका अर्थ यह है कि इस पृथ्वीपर कितने ही ऐसे मनुष्य हैं जो मदोन्मत्त हाथियोंके गण्डस्थल विदारनेमें शूरवीर है और कितने ही बलवान् सिंहके मारनेमें भी समर्थ हैं। किन्तु मैं बड़े-बड़े बलशाली मनुष्यों के सामने जोर देकर कहता हूँ कि कामदेवके दर्पको दलनेमें-खण्डित करनेमें विरले ही मनुष्य समर्थ हैं।
इस कामदेवकी विडम्बनाके विषयमें उन्हीं भर्तृहरिने एक जगह कितना सुन्दर कहा है__'यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः ।
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