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मेरी जीवनगाथा
कालसे अज्ञानके वशीभूत हो रहा है और अज्ञानमें आत्मा तथा परका भेदज्ञान न होनेसे पर्यायमें निजत्वकी कल्पना कर उसीकी रक्षाके प्रयत्नमें सदा तल्लीन रहता है । पर उसकी रक्षाका कुछ भी अन्य उपाय इसके ज्ञानमें नहीं आता । केवल पञ्चेन्द्रियोंके द्वारा स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण एवं शब्दको ग्रहण करना ही इसे सूझता है । प्राणीमात्र ही इसी उपायका अवलम्बन कर जगत् में अपनी आयु पूर्ण कर रहे हैं।
जब बच्चा पैदा होता है तब माँ के स्तनको चूसने लगता है। इसका मूल कारण यह है कि अनादि कालसे इस जीवके चार संज्ञाएँ लग रही हैं उनमें एक आहार संज्ञा भी है। उसके बिना इसका जीवन रहना असंभव है । केवल विग्रहगतिके तीन समय छोड़कर सर्वदा आहारवर्गणाके परमाणुओंको ग्रहण करता रहता है। अन्य कथा कहाँ तक कहें ? इस आहारकी पीड़ा जब असह्य हो उठती है तब सर्पिणी अपने बच्चोंको आप ही खा जाती है। पशुओंकी कथा छोड़िये जब दुर्भिक्ष पड़ता है तब माता अपने बालकोंको बेचकर खा जाती है। यहाँ तक देखा गया है कि कूड़ाघरमें पड़ा हुआ दाना चुन-चुन कर मनुष्य खा जाते हैं। यह एक ऐसी संज्ञा है कि जिससे प्रेरित होकर मनुष्य अनर्थ कार्य करने को प्रवृत्त हो जाता है। इस क्षुधाके समान अन्य दोष संसारमें नहीं । कहा भी है- 'सब दोषन माँही या सम नाहीं।' इसकी पूर्तिके लिए लाखों मनुष्य सैनिक हो जाते हैं। जो भी पाप हो इस आहारके लिये मनुष्य कर लेता है। इसका मूल कारण अज्ञान ही है। शरीरमें निजत्व बुद्धि ही इन उपद्रवोंकी जड़ है। जब शरीरको निज मान लिया तब उसकी रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य हो जाता है और जब तक यह अज्ञान है तभी तक हम संसारके पात्र हैं ? यह अज्ञान कब तक रहेगा इसपर श्रीकुन्दकुन्द महाराजने अच्छा प्रभाव डाला है
'कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव।'
भावार्थ- जब तक ज्ञानावरणादि कर्मों और औदारिकादि शरीरमें आत्मीय बुद्धि होती है और आत्मामें ज्ञानावरणादिक कर्म तथा शरीरकी बुद्धि होती है अर्थात् जब तक जीव ऐसा मानता है कि मेरे ज्ञानावरणादिक कर्म और शरीर है तथा मैं इनका स्वामी हूँ तब तक यह जीव अज्ञानी है और तभी तक अप्रतिबुद्ध है । यदि शरीरमें अहम्बुद्धि मिट जावे तो आहारकी आवश्यकता न रहे । जब शरीरकी शक्ति निर्बल होती है तभी आत्मामें आहार ग्रहण करनेकी इच्छा होती है । यद्यपि शरीर पुद्गलपिण्ड है तथापि उसका आत्माके साथ
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