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निवृत्तिकी ओर
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अर्थात् जीवाजीवादि सप्त पदार्थों का विपरित अभिप्रायसे रहित सदैव श्रद्धान करना चाहिये....इसीका नाम सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन ही आत्माका पारमार्थिक रूप है। इसका तात्पर्य यह है कि इसके बिना आत्मा अनन्त संसारका पात्र रहता है।
वह गुण अतिसूक्ष्म है। केवल कार्यसे ही हम उसका अनुमान करते हैं। जैसे अग्निकी दाहकत्व शक्तिका हमें प्रत्यक्ष नहीं होता। केवल उसके ज्वलन कार्यसे ही उसका अनुमान करते हैं। अथवा जैसे मदिरा पान करनेवाला उन्मत्त होकर नाना कुचेष्टाएँ करता है, पर जब मदिराका नशा उतर जाता है तब उसकी दशा शान्त हो जाती है। उसकी वह दशा उसीके अनुभवगम्य होती है। दर्शक केवल अनुमानसे जान सकते हैं कि इसका नशा उतर गया। मदिरामें उन्मत्त करनेकी शक्ति है, पर हमें उसका प्रत्यक्ष नहीं होता। वह अपने कार्यसे ही अनुमित होती है। अथवा जिस प्रकार सूर्योदय होनेपर सब दिशाएँ निर्मल हो जाती हैं उसी प्रकार मिथ्यादर्शनके जानेसे आत्माका अभिप्राय सब प्रकारसे निर्मल हो जाता है। उसका प्रत्यक्ष मति-श्रुत तथा देशावधि-ज्ञानियों के नहीं होता, किन्तु परमावधि, सर्वावधि, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानसे युक्त जीवोंके ही होता है। उनकी कथा करना ही हमें आता है, क्योंकि उनकी महिमाका यथार्थ आभास होना कठिन है। बात हम अपने ज्ञानकी करते हैं। वही ज्ञान हमें कल्याणके मार्गमें ले जाता है।
वस्तुतः आत्मामें अचिन्त्य शक्ति है और उसका पता हमें स्वयमेव होता है। सम्यग्दर्शन गुणका प्रत्यक्ष हमें न हो, परन्तु उसके होते ही हमारी आत्मामें जो विशदताका उदय होता है वह तो हमारे प्रत्यक्षका विषय है। यह सम्यग्दर्शनकी ही अद्भुत महिमा है कि हम लोग बिना किसी शिक्षक व उपदेशके उदासीन हो जाते हैं। जिन विषयोंमें इतने अधिक तल्लीन थे कि जिनके बिना हमें चैन ही नहीं पड़ता था, सम्यग्दर्शनके होनेपर उनकी एकदम उपेक्षा कर देते हैं।
___ इस सम्यग्दर्शनके होते ही हमारी प्रवृत्ति एकदम पूर्वसे पश्चिम हो जाती है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यका आविर्भाव हो जाता है। श्रीपञ्चाध्यायीकारने प्रशम गुणका यह लक्षण माना है
"प्रशमो विषयेषूच्चै वक्रोधादिकेषु च।
लोकासंख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिलं मनः ।। अर्थात् असंख्यात लोकप्रमाण जो कषाय और विषय हैं उनमें स्वभावसे ही मनका शिथिल हो जाना प्रशम है। इसका यह तात्पर्य है कि आत्मा अनादि
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