________________
152
मेरी जीवनगाथा
होगा ?' उन्होंने दृढ़ताके साथ कहा- 'हाँ, त्यागना होगा।' मैंने उत्साहके साथ कहा- 'अच्छा त्यागता हूँ।' जमीनपर सोनेकी आदत न थी, परन्तु जब पलंगकी आशा जाती रही तब अनायास भूशय्या होनेपर भी निद्रा सुखपूर्वक आ गई। प्रातःकाल श्रीजिनेन्द्रदेवके दर्शन कर श्री बालचन्द्रजीसे प्रतिमाके स्वरूपका निर्णय करने लगा । बाईजी भी वहीं बैठी थीं, कहने लगीं- 'प्रतिमाके स्वरूपका निर्णय तो हो जावेगा । चरणानुयोगके प्रत्येक ग्रन्थमें लिखा है रत्नकरण्डश्रावकाचारमें देख लो, किन्तु साथ ही अपनी शक्तिको भी देख लो । तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको देखो। सर्वप्रथम अपने परिणामोंकी जातिको पहिचानो । जो व्रत लो उसे मरण पर्यन्त पालन करो । अनेक संकट आने पर भी उसका निर्वाह करो। जैनधर्मकी यह मर्यादा है कि व्रत लेना, परन्तु उसे भंग न करना । व्रत न लेना पाप नहीं, परन्तु लेकर भंग करना महापाप है ।
1
जैनदर्शनमें तो सर्व प्रथम स्थान श्रद्धाको प्राप्त है । इसीका नाम सम्यग्दर्शन है। यदि यह नहीं हुआ तो व्रत लेना नीवके बिना महल बनानेके सदृश है। इसके होते ही सब व्रतोंकी शोभा है । सम्यग्दर्शन आत्माका वह गुण है जिसका कि विकास होते ही अनन्त संसारका बन्धन छूट जाता है । आठों कर्मोंसे सबकी रक्षा करनेवाला यही है । यह एक ऐसा शूर है कि अपनी रक्षा करता है और शेष गुणोंकी कर्मोंसे भी । सम्यग्दर्शनका लक्षण आचार्योंने तत्त्वार्थश्रद्धान लिखा है । जैसा कि दशाध्याय तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम अध्यायमें आचार्य उमास्वामीने लिखा है कि- 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।' श्री नेमिचन्द्र स्वामीने द्रव्यसंग्रहमें लिखा है कि- 'जीवादिसद्दहणं सम्मत्तं ।' यही समयसारमें लिखा है । तथा ऐसा ही लक्षण प्रत्येक ग्रन्थमें मिलता है । परन्तु पञ्चाध्यायीकर्त्ताने एक विलक्षण बात लिखी है । वह लिखते हैं कि यह सब तो ज्ञानकी पर्याय हैं। सम्यग्दर्शन आत्माका अनिर्वचनीय गुण है। जिसके होनेपर जीवोंके तत्त्वार्थका परिज्ञान अपने आप हो जाता है वह आत्माका परिणाम सम्यग्दर्शन कहलाता है ।
ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम आत्मामें सदा विद्यमान रहता है । संज्ञी जीवके और भी विशिष्ट क्षयोपशम रहता है । सम्यग्दर्शन के होते ही वही ज्ञान सम्यग्व्यपदेशको पा जाता है। पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें श्रीअमृतचन्द्राचार्यने भी लिखा है कि
Jain Education International
'जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् । ।'
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org