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________________ निवृत्तिकी ओर 151 लोग ऐसा सन्देह करने लगते हैं कि इसने मद्य पिया होगा। ठीक यही गति हमारी हुई। उस समय मैं उत्तम वस्त्र रखता था। बड़े बाल थे, बालोंमें आठ रुपये सेरवाला चमेलीका तेल डालता था, एक वर्षमें १२ धोती जोड़े बदलता था। इस तरह जहाँ तक बनता शरीरको सँभालनेमें कसर नहीं रखता था। परन्तु यह सब होनेपर भी मेरी पापमय प्रवृत्ति स्वप्नमें भी नहीं होती थी। __ अधिकांश लोगोंके कान होते हैं, आँख नहीं होती। अतः उसके यहाँ शाक लेनेसे मैं लोगोंकी दृष्टिमें आने लगा। इसका मेरी आत्मा पर गहरा प्रभाव पड़ा। एक दिन छेदीलालजीके बागमें सब जैनियोंका भोजन था। मैंने वहीं सबके समक्ष इस बातका स्पष्टीकरण कर यह निश्चय किया कि मैं आजसे ही ब्रह्मचर्य प्रतिमाका पालन करूँगा। हमारे परमं स्नेही श्री बालचन्द्रजी सवालनवीस भी वहीं बैठे थे। उन्होंने बहुत समझाया और कहा कि 'तुम व्रत तो पालते ही हो, अतः कुछ समय और ठहरो। चरणानुयोगकी पद्धतिसे व्रतका पालन करना कठिन है। अभी चरणानुयोगका अभ्यास करो और यदि प्रतिमा लेनेकी ही अभिलाषा है तो पहले व्रतप्रतिमाका अभ्यास करो। उसमें पाँच अणुव्रत और सात शील व्रत हैं। जब यह बारह व्रत निर्विघ्न यथायोग्य पलने लगें तब सप्तमी-ब्रह्मचर्य प्रतिमा ले लेना। आवेगमें आकर शीघ्रतासे कार्य करना उत्तर कालमें दुःखका कारण हो जाता है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि आप निष्कलंक हैं, किन्तु लोकके भयसे आपकी प्रवृत्ति व्रत लेनेमें हो गई। अभी आपकी प्रवृत्ति एकदम स्वच्छन्द रही। इस व्रतके लेते ही यह सब आडम्बर छूट जावेगा। आपका जो भोजन है वह सामान्य नहीं, वह भी छूट जावेगा। धोबीसे वस्त्र नहीं धूला सकोगे, यह चमेलीका तेल और वे बड़े-बड़े बाल आदि सब उपद्रव छोड़ने पड़ेगें। परन्तु मैंने एक न सुनी और वहाँसे आकर मेरे पास जो भी बाह्य सामग्री थी सब वितरण कर दी और यह नियम किया कि किसी त्यागी महाशयके समीप इस व्रतको नियमपूर्वक अंगीकार करूँगा। परन्तु अभ्यास अभीसे करता हूँ। निवृत्तिकी ओर वीरनिर्वाण सं० २४३६ और वि०सं० १६६६ की बात है, रात्रिको जब सोने लगा तब श्रीबालचन्द्रजीने कहा-'यह निवारका पलंग अब मत बिछाओ, अब तो काठके तख्तापर सोना पड़ेगा।' मैंने कहा-'इसको मैंने बड़े स्नेहसे बनवाया था। पच्चीस रुपया तो इसके बनवाने में लगे थे। क्या इसे भी त्यागना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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