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________________ दूरदर्शी मूलचन्द्रजी सर्राफ 147 अपनेको नहीं सँभाल सकी और उसके साथ चली गई। किन्तु, निष्पाप थी, अतः आपके द्वारा मेरा उद्धार हो गया। मैं आपके उपकारको आजीवन न भूलूँगी। संसारमें पापोदयके समय अनेक आपत्तियाँ आती हैं, पर उनका निवारण करनेमें महापुरुष ही समर्थ होते हैं।' उसके इस कथनके अनन्तर जितने पञ्च वहाँ उपस्थित थे सबने उसे निष्पाप जानकर एक स्वरसे धन्यवाद दिया और उस मुसलमानको डाँटा कि तुम्हें ऐसी हरकत करना उचित न था। यदि तुम्हारा हम लोगोंके साथ ऐसा व्यवहार रहा तो हम लोग भी सिक्ख नीतिका अवलम्बन करनेमें आगा-पीछा न करेंगे। __ इस प्रकारके सुधारक थे श्री सर्राफजी। आपसे मेरा हार्दिक स्नेह था। आपने मेरे ५०००) जमा कर लिए, जब कि मैंने एक पैसा भी नहीं दिया था और न मेरे पास था ही। रुपया कैसे अर्जन किया जाता है इस विषयमें प्रारम्भसे ही मूर्ख था। एक दिनकी बात है कि मूलचन्द्रजीकी औरतके गर्भ था। सब लोग वहाँ पर गप्पाष्टक कर रहे थे। किसीने कहा-'अच्छा, बतलाओ गर्भमें क्या है ?' किसीने कहा-'बालक है। किसीने कहा 'बालिका है।' मुझसे भी पूछा गया। मैंने कहा-'मैं नहीं जानता क्या है ? क्योंकि निमित्तज्ञानसे शून्य हूँ। अथवा उसके गर्भमें नहीं बैठा हूँ कि आँखसे देखकर बता दूँ।' इतना कह चुकने पर भी लोग आग्रह करते रहे । अन्ततोगत्वा मैंने भी अन्य लोगोंकी तरह उत्तर दे दिया कि बालक है और जब पैदा होगा उसका श्रेयांसकुमार नाम होगा। यह सुनकर लोग बहुत ही प्रसन्न हो गये और उस दिनकी प्रतीक्षा करने लगे। इस बरुआसागरमें एक दिन एक विलक्षण घटना और हो गई जो कि इस प्रकार है-दिनके चार बजे मैं जलका पात्र (लोटा) लेकर शौच क्रियाके लिये ग्रामके बाहर जा रहा था। मार्गमें बालक गेंद खेल रहे थे। उन्हें देखकर मेरे मनमें भी गेंद खेलनेका भाव हो गया। एक लड़केसे मैंने कहा-'भाई ! हमको भी दण्डा और गेंद दो, हम भी खेलेंगे।' बालकने दण्डा और गेंद दे दी। मैंने दण्डा गेंदमें मारा, पर वह गेंदमें न लगकर पास ही खड़े हुए ब्राह्मणके बालकके नेत्रमें बड़े वेगसे जा लगा और उसकी आँखसे रुधिरकी धारा बहने लगी। यह देखकर मेरी अवस्था इतनी शोकातुर हो गई कि मैं सब कुछ भूल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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