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________________ मेरी जीवनगाथा 146 और तुलसीदल दिया गया। इस प्रकार वह शुद्ध हुई। पश्चात् उसके द्वारा एक घड़ा छना पानी मँगाया गया। लोग पीनेसे इंकार करने लगे। मूलचन्द्रजीने कहा-'जो पानी न पीयेगा वह दण्डका पात्र होगा। अतः पहले मूलचन्द्रजीने एक ग्लास पानी उसके हाथका पिया। इसके बाद फिर क्या था ? सब पञ्च लोगोंने उसके हाथका पानी पिया। पश्चात् बाजारसे पेड़ा लाये गये और सब पञ्चोंने उसके हाथके पेड़ा खाये......इस प्रकार एक औरतका उद्धार हुआ। __ इतना सब हो चुकनेके बाद वह औरत बोली-'मुझे विश्वास न था कि मेरे ऊपर आप लोगोंकी इतनी दया होगी। मैं तो पतित हो ही चुकी थी। आजके दिन श्री सर्राफके प्राणपन प्रयत्न और आप लोगोंकी निर्मल भावनासे मेरा उद्धारहो गया। भला ऐसा कौन कर सकता था ? यदि यही न्याय कहीं पढ़े लिखे महानुभावोंके हाथमें होता तो मेरा उद्धार होना असम्भव था। पहले भारतवर्षमें जहाँ दूधकी नदियाँ बहती थीं वहाँ आज खूनकी नदियाँ बहने लगीं। इसका मूल कारण यही तो हुआ कि हमने पतित लोगोंको अपनाया नहीं। किन्तु उनको जबरदस्ती भ्रष्ट किया। क्या भारतवर्षमें इतने मुसलमान थे ? नहीं, केवल बलात्कारसे बनाये गये। जो बन गये, हमने उन्हें शुद्ध करनेसे इंकार कर दिया। किसी मुसलमानने किसी औरतके साथ हँसी मजाक किया, हमने उसका प्रतिक्रम नहीं किया। परस्परमें संघटित नहीं रहे। यही कारण है कि आज हमारी यह दशा हो रही है। यदि आप मेरा उद्धार न करते तो मैं वह प्रयत्न करती जिससे कि मेरे पतिका अस्तित्व एक आपत्तिमें पड़ जाता। मैं जिसके यहाँ चली गई थी उससे मेरा असत् सम्बन्ध न था, किन्तु वह हमारे घर पर नौकर था। मेरे पति जब बाहर जाते थे तब मैं उससे बाजारसे जिस वस्तुकी आवश्यकता होती बुला लेती थी और आप जानते हैं जहाँ परस्परमें संभाषण होता है वहाँ हास्यरसकी बात आजाने पर हँसी भी आ जाती। ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्ति मनुष्य और स्त्रियोंकी होती है। क्या इसका अर्थ यह है कि हास्य करनेवाले असदाचारी हो गये। माँ अपने जवान बालकके साथ हँसती है, पुत्री बापके साथ हँसती है, बहिन भाईके साथ हँसती है। पर इसका यह अर्थ कोई नहीं लेता कि वे असदाचारी हैं। मैं सत्य कहती हूँ कि मैंने उसके साथ कोई भी असदाचार न पहिले किया था और न अब उसके घर रहते हुए भी किया है। फिर भी मेरे पतिको सन्देह हो गया कि यह दुराचारिणी है और एकदम मुझे आज्ञा दी कि तू उसीके साथ चली जा। मैं भी क्रोधके आवेशमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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