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________________ दूरदर्शी मूलचन्द्रजी सर्राफ 145 निरन्तर यही भावना रहेगी कि जिस पतिने मुझे इस अवस्था तक पहुँचाया है उसका सर्वनाशका यत्न करनेमें मैं सफल होऊँ । उपपतिकी यह भावना रहेगी कि हिन्दू लोग कुछ करते तो है नहीं, अतः उनकी औरतोंको इसी तरह फुसलाना चाहिए। जो इसके बालक होगा उसे वह यही पाठ पढ़ावेगी कि बेटा ! मैं जातिकी हिन्दू हूँ, तुम्हारे अमुक पिताने जो अभी तक जीवित है, मेरे साथ ऐसी निन्द्य क्रिया की कि जिससे आज मैं इस अवस्थामें हूँ। जिस मांससे मुझे स्वाभाविक घृणा थी वह आज मेरा खाद्य हो गया। जीवदया जो मेरी प्राण थी वह नष्ट हो गई। आज जीवोंका घात करना ही मेरा जीवन हो गया। मैं चींटी मारनेसे काँपती थी, पर आज मुर्गी, मुर्गा, बकरी, बकरा मारना खेल समझती हूँ। ऐसा भाव अपने पुत्रादिकको मनमें उत्पन्न कर अपनेको धन्य समझेगी। अतः इस विषयमें मैं आप लोगोंसे विशेष न कह कर यही प्रार्थना करता हूँ कि इसे अविलम्ब जातिमें मिला लिया जाये।' __श्रीयुत सर्राफजीका व्याख्यान समाप्त हुआ। बहुत महाशयोंने उसका समर्थन किया, बहुतोंने अनुमोदन किया। मैंने भी श्रीमूलचन्द्रजीकी बातको पुष्ट करते हुए कहा कि 'भाई ! यह संसार है, इसमें पाप होना कठिन नहीं, क्योंकि यह संसार राग, द्वेष, मोहका तो घर ही है। काल पाकर जीवोंकी मति भ्रष्ट हो जाती है और सुधर भी जाती है। यदि इस संसारमें सुधारका मार्ग न होता तो किसी जीवकी मुक्ति ही न होती, अतः पापको बुरा जान उससे घृणा कीजिये और यदि कोई पापसे अपनी रक्षा करना चाहे तो उसकी सहायता कीजिये। आप लोगोंका निमित्त पाकर यदि एक अबलाका सुधार होता है तो उसमें आप लोगोंको आपत्ति करना उचित नहीं, अतः श्री मूलचन्द्रजीके प्रस्तावको सर्वानुमतिसे पास कीजिये और अभी उसे वेत्रवतीमें स्नान करानेके लिए भेजिए।' इसके बाद और भी बहुतसे लोगोंके सारगर्भित भाषण हुए। इस प्रकार मूलचन्द्रजीका प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। प्रस्तावका रूप यह था-'जो औरत अपने घरसे पतिके कटु शब्दोंको सहन न कर मुसलमानके घर चली गई थी वह आज आ गई। उसे हम लोग उसी जातिमें मिलाते हैं। यदि कोई मनुष्य या स्त्री उसके साथ जाति विरुद्ध व्यवहार करेगा तो उसे १००) दण्ड तथा एक ब्राह्मण भोजन देना होगा।' द० सकल पञ्चान, बरुआसागर इसके बाद उसे स्नानके लिए वेत्रवती भेजा गया। वहाँसे आई तब ठाकुरजीके मन्दिरमें दर्शनके लिए भेजा गया। वहाँ पर भगवान्का चरणामृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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