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________________ 144 मेरी जीवनगाथा मुसलमान नौकर रहता था । काछीकी औरतसे काछी जमींदारकी कुछ लड़ाई हुई। उसने औरतको बहुत डाँटा और क्रोधमें आकर कहा - 'रांड मुसलमानके यहाँ चली जा ।' वह सचमुच चली गई और दो दिन तक उसके सहवासमें रही आई । इस घटना के समय मूलचन्द्रजी झाँसी गये थे । वहाँसे आकर जब उन्होंने यह सुना कि एक काछीकी औरत मुसलमानके घर चली गई तब बड़े दुःखी हुए। अपने अंगरक्षकोंको लेकर उस मोहल्लेमें गये और ग्राम-पंचायत कर उसमें उस औरत तथा मुसलमानको बुलाया। आनेपर औरतसे कहा- 'अपने घर आ जाओ ।' उसने कहा - 'हम तो मुसलमानिनी हो गये, क्योंकि उसका भोजन कर लिया ।' सब पञ्च सुनकर कहने लगे कि अब तो यह जातिमें नहीं मिलाई जा सकती । मूलचन्द्रजीने गंभीर भावसे कहा कि 'आपत्ति काल है अतः इसे मिलानेमें आपत्ति नहीं होनी चाहिये ।' लोगोंने कहा- 'पहले गंगास्नान कराना चाहिये और पश्चात् तीर्थयात्रा कराना चाहिये, अन्यथा सब व्यवहारका लोप हो जावेगा।' मूलचन्द्रजीने कहा- 'जब सब लोग क्रमशः अधःपतनको प्राप्त हो चुकेंगे तब व्यवहारका लोप न होगा। अतः मेरी तो यह सम्मत्ति है कि इसे गंगा न भेजकर वेत्रवती भेज दिया जावे, क्योंकि वह यहाँसे तीन मील है। वहाँसे स्नान करके आ जावे और इसी ग्राममें जो ठाकुरजीका मंदिर है उसका दर्शन करे । पश्चात् तुलसीदल और चरणामृत देकर इसे जातिमें मिला लिया जावे।' सब लोगोंने सर्राफजीका यह निर्णय अंगीकृत किया । परन्तु वह औरत बोली- मैं नहीं आना चाहती।' मूलचन्द्रजीने कहा- तुझे आनेमें क्या आपत्ति है ?' वह बोली- 'मुझसे सब लोग घृणा करेंगे, मेरे हाथकी रोटी न खावेंगे तथा मुझे दासी की तरह रक्खेंगे और उस हालतमें मेरा जीवन आजन्म दुःखी रहेगा, अतः मेरे साथ यदि पूर्ववत् व्यवहार किया जावे तब मैं आनेको सहर्ष प्रस्तुत हूँ। आशा है मेरी नम्र प्रार्थनापर आप लोग सम्यक् परामर्श कर यहाँसे उठेंगे।' 1 श्री मूलचन्द्रजीने उसके वाक्य श्रवण कर एक सारगर्भित भाषण दिया । पहले तो यह दोहा पढ़ा Jain Education International 'सकल भूमि गोपालकी यामें अटक कहा । जाके मनमे अटक है सो ही अटक रहा ।।' फिर कहा- 'बन्धुओं ! आज एक हिन्दू स्त्री यदि मुसलमानके घर चली गई तो सर्वप्रथम वही शत्रु होगी, अनेक ललनाओंको फुसलावेगी और उसकी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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