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दूरदर्शी मूलचन्द्रजी सर्राफ
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यदि यह दो पंगत पक्की और एक पंगत कच्ची रसोईकी देवें तथा २५०) पपौरा विद्यालयको और २५०) जताराके मन्दिरको प्रदान करें तो जातिमें मिला लिये जावें । मैंने कहा-'अब विलम्ब मत कीजिये, कल ही इनकी पंगत ले लीजिये। सबने स्वीकार किया। दूसरे दिनसे सानन्द पंक्ति भोजन हुआ और ५००) दण्डके दिये गये। उसने यह सब करके पञ्चोंकी चरणरज शिर पर लगाई और सहस्रों धन्यवाद दिये। तथा बीस हजारकी सम्पत्ति जो उसके पास थी, एक जैनीका बालक गोद लेकर उसके सुपुर्द कर दी।...........इस प्रकार एक जैनका उद्धार हो गया और उसकी सम्पत्ति राज्यमें जानेसे बच गई। कहनेका तात्पर्य यह है कि शुद्धिके मार्गका लोप नहीं करना चाहिये तथा इतना कठोर दण्ड भी नहीं देना चाहिये कि जिससे भयभीत हो कोई अपने पापोंको व्यक्त ही न कर सके।
इस प्रकार उसकी शुद्धि कर मैं श्रीयुक्त वर्णीजीके साथ देहात में चला गया। और यथाशक्ति हम दोनोंने बहुत स्थानों पर धर्म प्रचार किया।
दूरदर्शी मूलचन्द्रजी सर्राफ कई स्थानोंमें घूमने के बाद मैं श्रीयुत् सर्राफ मूलचन्द्रजी बरुआसागर वालोंके यहाँ चला गया। आप हमसे अधिक अवस्थावाले थे, अतः मुझसे अनुजकी तरह स्नेह करते थे। आपके विचार निरन्तर प्रशस्त रहते थे। आप बरुआसागरके जमींदार थे और निरन्तर सुधारके पक्षपाती रहते थे। आपके ग्राममें नन्दकिशोर अलया एक विलक्षण प्रतिभाशाली मुनीम थे। आपका मूलचन्द्रजी सर्राफके साथ सदा वैमनस्य रहता था। आप निरन्तर मूलचन्द्रजीको फँसानेकी ताकमें थे, परन्तु श्री सर्राफ इतने चतुर थे कि बड़े दरोगाओंकी चंगुलमें नहीं आये। नन्दकिशोर तो कोई गिनतीमें न थे।
एक बार नन्दकिशोरकी औरत कूपमें गिरकर मर गयी। आप दौड़कर सर्राफजीके पास आये और बोले 'भैया ! गृहिणी मर गई क्या करूँ ?' ग्रामके बाहर कूप था, अतः बस्तीमें होहल्ला मचनेके पहले ही आप एकदम जैनियोंको लेकर कुआ पर पहुंचे और उसे निकालकर श्मशानमें जला दिया। बादमें दरोगा आया, परन्तु तब तक लाश जल चुकी थी। क्या होगा ? यह सोचकर सब डर गये, परन्तु सर्राफने सब मामला शान्त कर दिया।
यहाँ एक बात और लिखने की है वह यह कि बरुआसागरमें काछियों की जमींदारी है, बड़े-बड़े धनाढ्य हैं। एक काछी नम्बरदारके यहाँ एक
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