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________________ मेरी जीवनगाथा 142 बन्धुवर ! इतनी कठोरताका व्यवहार छोड़िये। गृहस्थ-अवस्थामें परिग्रहके सम्बन्धसे अनेक प्रकारके पाप होते हैं। सबसे महान् पाप तो परिग्रह ही है फिर भी श्रद्धाकी इतनी प्रबल शक्ति है कि समन्तभद्र स्वामीने लिखा है 'गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान। अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः।।' ___ अर्थात् निर्मोही गृहस्थ मोक्षमार्गमें स्थित है और मोही मुनि मोक्षमार्गमें स्थित नहीं है। इससे यह सिद्ध हुआ कि मोही मुनिकी अपेक्षा मोहरहित गृहस्थ उत्तम है। यहाँ पर मोह शब्दका अर्थ मिथ्यादर्शन जानना, इसीलिए आचार्योंने सब पापोंसे महान् पाप मिथ्यात्वको ही माना है। समन्तभद्र स्वामीने और भी लिखा है कि ___ 'न हि सम्यक्त्वसमं किञ्चित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्।। इसका भाव यह है कि सम्यग्दर्शनके सदृश तीन काल और तीन जगत्में कोई भी कल्याण नहीं और मिथ्यात्वके सदृश कोई अकल्याण नहीं, अर्थात् सम्यक्त्व आत्माका वह पवित्र भाव है जिसके होते ही अनन्त संसारका अभाव हो जाता है और मिथ्यात्व वह वस्तु है जो अनन्त संसारका कारण होता है, अतः महानुभावो ! मेरे पर नहीं, अपने पर दया करो और इसे जातिमें मिलानेकी आज्ञा दीजिये।' इन पञ्च महाशयोंमें स्वरूपचन्द्रजी बनपुरया बहुत ही चतुर पुरुष थे। वे मुझसे बोले-'आपने कहा सो आगम प्रमाण तो वैसा ही है, परन्तु यह जो शुद्धिकी प्रथा चली आ रही है उसका भी संरक्षण होना चाहिये। यदि यह प्रथा मिट जावेगी तो महान् अनर्थ होने लगेंगे। अतः आप उतावली न कीजिये ! शनैः-शनैः ही कार्य होता है। 'कारज धीरे होत है काहे होत अधीर । समय पाय तरुवर फलै केतिक सींचो नीर ।।' इसलिये मेरी सम्मति तो यह है कि यह प्रान्त भरके जैनियोंको सम्मिलित करें। उस समय इनका उद्धार हो जावेगा।' प्रान्तका नाम सुनकर मैं तो भयभीत हो गया, क्योंकि प्रान्तमें अभी हठवादी बहुत हैं। परन्तु लाचार था, अतः चुप रह गया। आठ दिन बाद प्रान्तके दो सौ आदमी सम्मिलित हुए। भाग्यसे हठवादी महानुभाव नहीं आये, अतः पञ्चायत होनेमें कोई बाधा उपस्थित नहीं हुई। अन्तमें यह निर्णय हुआ कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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