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________________ पतित पावन जैनधर्म कुकृत्योंपर विचार कीजिये और फिर स्थिर चित्तसे यह सोचिये कि आप लोगोंकी नियमहीन पञ्चायतने ही आज जैनजातिको इस दशामें ला दिया है। बेचारे जैनी लोग दर्शन तकके लिए लालायित रहते हैं । कल्पना करो, किसीने दस्साके साथ सम्बन्ध कर लिया तो इसका क्या अर्थ हुआ कि वह जैनधर्मकी श्रद्धासे भी च्युत हो गया । श्रद्धा वह वस्तु है जो सहसा नहीं जाती । शास्त्रोंमें इसके बड़े-बड़े उपाख्यान हैं- बड़े-बड़े पातकी भी श्रद्धाके बलसे संसारसे पार हो गये। श्री कुन्दकुन्द भगवान्ने लिखा है कि 141 'दंसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठाण णत्थि णिव्वाणं । सिज्झति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिज्झति । ।' अर्थात् जो दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं। जो दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे निर्वाणके पात्र नहीं । चरित्रसे जो भ्रष्ट हैं उनका निर्वाण (मोक्ष) हो सकता है, परन्तु जो दर्शनभ्रष्ट हैं वे निर्वाण लाभसे वञ्चित रहते हैं । प्रथमानुयोगमें ऐसी बहुत-सी कथाएँ आती हैं जिनमें यह बात सिद्ध की गई है कि जो चारित्रसे गिरने पर भी सम्यग्दर्शनसे सहित हैं वे कालान्तरमें चारित्रके पात्र हो सकते हैं। जैसे माघनन्दी मुनिने कुम्भकारकी बालिकाके साथ विवाह कर लिया तथा उसके सहवासमें बहुत काल बिताया, बर्तन आदिका आवाँ लगाकर घोर हिंसा भी की। एक दिन मुनि सभामें किसी पदार्थके विचारमें सन्देह हुआ तब आचार्यने कहा इसका यथार्थ उत्तर माघनन्दी, जो कि कुम्भकारकी बालिकाके साथ आमोद-प्रमोदमें अपनी आयु बिता रहा है, दे सकेगा। एक मुनि वहाँ पहुँचा, जहाँ कि माघनन्दी मुनि कुम्भकारके वेषमें घटनिर्माण कर रहे थे और पहुँचते ही कहा कि 'मुनिसंघमें जब इस विषयपर शंका उठी तब आचार्य महाराजने यह कहकर मुझे आपके पास भेजा है कि इसका यथार्थ उत्तर माघनन्दी ही दे सकते हैं। कृपाकर आप इसका उत्तर दीजिए ।' Jain Education International इन वाक्योंको सुनते ही उनके मनमें एकदम विशुद्धताकी उत्पत्ति हो गई और मनमें यह विचार आया कि यद्यपि मैंने अधमसे अधम कार्य किया है फिर भी आचार्य महाराज मुझे मुनि शब्दसे संबोधित करते हैं और मेरे ज्ञानका मान करते हैं । कहाँ है मेरा पीछी- कमण्डलु ? यह विचार आते ही उन्होंने आगन्तुक मुनिसे कहा कि मैं इस शंकाका उत्तर वहीं चलकर दूँगा और पीछी-कमण्डलु लेकर वनका मार्ग लिया । वहाँ प्रायश्चित्त विधिसे शुद्ध होकर पुनः मुनिधर्ममें दीक्षित हो गये । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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