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मेरी जीवनगाथा
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न आवेगा? उस द्रव्यसे अध्यापकों को वेतन दिया जावेगा तो क्या वे इंकार कर देवेंगे ? अतः हठको छोड़िये और दयाकर आज्ञा दीजिये कि एक हजार रुपया लेकर जयपुरसे वेदी मँगाई जावे।'
सबने सहर्ष स्वीकार किया और वेदिका लाने तथा जड़वानेका भार श्रीमान् मोतीलालजी वर्णीके अधिकारमें सौंपा गया। फिर क्या था, उन जातिच्युत महाशयके हर्षका ठिकाना न रहा। श्री वर्णीजी जयपुर जाकर वेदी लाये। मन्दिरमें विधिपूर्वक वेदीप्रतिष्ठा हुई और उसपर श्रीपार्श्वप्रभुकी प्रतिमा विराजमान हुई। मैंने पञ्चमहाशयोंसे कहा-'देखो, मन्दिरमें, जब शूद्र तक आ सकते हैं
और माली रात्रि-दिन रह सकता है तब जिसने १०००) दिये और जिसके द्रव्यसे यह वेदिप्रतिष्ठा हुई उसीको दर्शन न करने दिये जावें, यह न्यायविरुद्ध है। आशा है हमारी प्रार्थना पर आप लोग दया करेंगे।
सब लोगोंके परिणामोंमें न जाने कहाँसे निर्मलता आ गई कि सबने उसे श्री जिनेन्द्रदेवके दर्शनकी आज्ञा प्रदान कर दी। इस आज्ञाको सुनकर वह तो आनन्द-समुद्र में डूब गया। आनन्दसे दर्शन कर पञ्चोंसे विनयपूर्वक बोला-'उत्तराधिकारी न होनेसे मेरे पास की सम्पत्ति राज्यमें चली जावेगी, अतः मुझे जातिमें मिला लिया जाय। ऐसा होनेसे मेरी सम्पत्तिका कुछ सदुपयोग हो जायेगा।'
यह सुनकर लोग आगबबूला हो गये और झुंझलाते हुए बोले-'कहाँ तो मन्दिर नहीं आ सकते थे, अब जातिमें मिलाने का होंसला करने लगे। अँगुली पकड़कर पोंचा पकड़ना चाहते हो?' वह हाथ जोड़कर बोला-'आखिर आपकी जातिका जन्मा हूँ। क्या जो वस्त्र मलिन हो जाता है उसे भट्ठीमें देकर उज्जवल नहीं किया जाता ? यदि आप लोग पतितको पवित्र करनेका मार्ग रोक लेवेंगे तो आपकी जाति कैसे सुरक्षित रह सकेगी? मैं तो वृद्ध हूँ, मृत्युके गालमें बैठा हूँ। परन्तु यदि आप लोगोंकी यही नीति रही तो कालांतरमें आपकी जातिका अवश्यंभावी हास होगा। जहाँ आय न हो केवल व्यय ही हो वहाँ भारी खजानेका अस्तित्व नहीं रह सकता। आप लोग इस बातपर विचार कीजिए, केवल हठवादिताको छोड़िये।'
मैंने भी उसकी बात-में-बात मिला दी। पञ्च लोगोंने मेरे ऊपर बहुत प्रकोप प्रकट किया। कहने लगे कि 'यह इन्हींका कर्तव्य है जो आज इस आदमीको इतना बोलनेका साहस हो गया। मैंने कहा-'भाई साहब ! इतने क्रोध की आवश्यकता नहीं। धोतीके नीचे सब नंगे हैं। आप लोग अपने
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