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________________ पतित पावन जैनधर्म Jain Education International मिलना चाहिए, क्योंकि यह पञ्चम काल है। इसमें बिना अवलम्बनके परिणामोंकी स्वच्छता नहीं होती। आज कलके लोगोंकी प्रवृत्ति विषयोंमें लीन हो रही है। यदि मैं स्वयं विषयमें लीन न हुआ होता तो इनके तिरस्कार का पात्र क्यों होता ? आशा है आप मेरी प्रार्थना पर ध्यान देनेका प्रयत्न करेंगे । पञ्च लोगोंके जालमें आकर उन जैसी मत गोलना।' मैंने कहा- 'क्या आप बिना किसी शर्तके संगमर्मरकी वेदी मन्दिरमें पधरा दोगे ?' उन्होंने कहा- 'हाँ, इसमें कोई शंका न करिये। मैं १०००) की वेदी श्रीजीके लिये मन्दिरमें जड़वा दूँगा और यदि पञ्च लोग दर्शनकी आज्ञा न देंगे तो भी कोई आपत्ति न करूँगा । यही भाग्य समझँगा कि मेरा कुछ तो पैसा धर्ममें गया ।' मैंने कहा - 'विश्वास रखिये, आपका अभीष्ट अवश्य सिद्ध होगा ।' इसके अनन्तर मैंने घर जाकर सम्पूर्ण पञ्च महाशयोंको बुलाया और कहा कि 'यदि कोई जैनी जातिसे च्युत होनेके अनन्तर बिना किसी शर्तके दान करना चाहे तो आप लोग क्या उसे ले सकते हैं ?' प्रायः सबने स्वीकार किया । यहाँ प्रायः से मतलब यह है कि जो एक दो सज्जन विरुद्ध थे, वे रुष्ट होकर चले गये। मैंने कहा - 'अमुक व्यक्ति १०००) की संगमर्मरकी वेदिका मन्दिरमें जड़वाना चाहता है, आपको स्वीकार है ?' उनका नाम सुनते ही बहुत लोग बोले- 'वह तो २५ वर्षसे जातिच्युत है, अनर्थ होगा । आपने कहाँकी आपत्ति हम लोगों पर ढा दी।' मैंने कहा - 'कुछ नहीं गया, मैंने तो सहज ही में कहा था । पर जरा विचार करो - मन्दिरकी शोभा हो जावेगी तथा एकका उद्धार हो जावेगा। क्या आप लोगोंने धर्मका ठेका ले रक्खा है कि आपके सिवाय मन्दिरमें कोई दान न दे सके। यदि कोई अन्य मतवाला दान देना चाहे तो आप न लेवेंगे ! बलिहारी है आपकी बुद्धिको ? अरे ! शास्त्रमें तो यहाँ तक कथा है कि शूकर, सिंह, नकुल और वानरसे हिंसक जीव भी मुनिदानकी अनुमोदनासे भोगभूमि गये, व्याघ्रीका जीव स्वर्ग गया, जटायु पक्षी स्वर्ग गया, बकरेका जीव स्वर्ग गया, चाण्डालका जीव स्वर्ग गया, चारों गतिके जीव सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं, तिर्यञ्चोंके पञ्चम गुणस्थान तक हो जाता है । धर्मका सम्बन्ध आत्मासे है, न कि शरीरसे । शरीर तो सहकारी कारण है । जहाँ आत्माकी परिणति मोहादि पापों से मुक्त हो जाती है वहीं धर्मका उदय हो जाता है। आप इसे वेदिका न जड़वाने देवेंगे, परन्तु यह यदि पपौरा विद्यालयमें देना चाहेंगे तो क्या आपके वर्णीजी उस द्रव्यको न लेवेंगे और यही द्रव्य क्या आपके बालकोंके भोजनमें 1 139 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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