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________________ मेरी जीवनगाथा 138 फिर भी सुयोग नहीं हुआ। मनमें विचार आया कि गुप्त पाप करना महान् पाप है। इसकी अपेक्षा तो किसी औरतको रख लेना ही अच्छा है। अन्तमें मैंने उस औरतको रख लिया। इतना सब होने पर भी मेरी धर्मसे रुचि नहीं घटी। मैंने पंचोसे बहुत ही अनुनय विनय किया कि महाराज ! दूरसे दर्शन कर लेने दो। परन्तु यही उत्तर मिला कि मार्ग विपरीत हो जावेगा।' मैंने कहा कि मन्दिरमें मुसलमान कारीगर तथा मोची आदि तो काम करने के लिए चले जावें, जिन्हें जैनधर्मकी रंचमात्र भी श्रद्धा नहीं, परन्तु हमको जिनेन्द्र भगवान्के दर्शन दूरसे ही प्राप्त न हो सकें.....बलिहारी है आपकी बुद्धिको । कामवासनाके वशीभूत होकर मेरी प्रवृत्ति उस ओर हो गई। इसका यह अर्थ नहीं कि जैनधर्मसे मेरी रुचि घट गई। कदाचित् आप यह कहें कि मनकी शुद्धि रक्खो, दर्शनसे क्या होगा। तो आपका यह कोई उचित उत्तर नहीं है। यदि केवल मनकी शुद्धिपर ही आप लोगोंका विश्वास है तो श्री जिन मन्दिरके दर्शनोंके लिए आप स्वयं क्यों जाते हैं ? तीर्थयात्राके लिए व्यर्थ भ्रमण क्यों करते हैं ? और पञ्चकल्याणकप्रतिष्ठा आदि क्यों करवाते हैं ? मनकी शुद्धि ही सब कुछ है, ऐसा एकान्त उपदेश मत करो। हम भी जैनधर्म मानते हैं। हमने औरत रख ली, इसका यह अर्थ नहीं होता कि हम जैनी ही नहीं रहे। हम अभी तक अष्ट मूलगुण पालते हैं, हमने आजतक अस्पतालकी दवाईका प्रयोग नहीं किया, किसी कुदेवको नहीं माना, अनछना पानी नहीं पिया, रात्रि भोजन नहीं किया, प्रतिदिन णमोकारमन्त्रकी जाप करते हैं, यथाशक्ति दान देते हैं तथा सिद्धक्षेत्र श्री शिखरजीकी यात्रा भी कर आये हैं.....इत्यादि पञ्चोंसे निवेदन किया, परन्तु उन्होंने एक नहीं सुनी। यही उत्तर मिला कि पंचायती सत्ताका लोप हो जावेगा। मैंने कहा-'मैं तो अकेला हूँ, वह रखेली औरत मर चुकी है, लड़की पराये घरकी है, आप सहभोजन मत कराइये, परन्तु दर्शन तो करने दीजिये। मेरा कहना अरण्य-रोदन हुआ–किसीने कुछ न सुना। वही चिरपरिचित रूखा उत्तर मिला कि पंचायती प्रतिबन्ध शिथिल हो जावेगा.....यह मेरी आत्मकहानी मैंने कहा-'आपके भाव सचमुच दर्शन करनेके हैं ?' उसने कहा-हाँ। मैं अवाक रह गया। पश्चात् उससे कहा-'भाई साहब ! कुछ दान कर सकते हो ?' वह बोला "जो आपकी आज्ञा होगी, शिरोधार्य करूँगा। यदि आप कहेंगे तो एक लंगोटी लगाकर घरसे निकल जाऊँगा। परन्तु जिनेन्द्रदेवके दर्शन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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