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पतित पावन जैनधर्म
विद्यादानमें देना चाहते हैं, इसमें आपकी क्या सम्मति है ?' उन्होंने कहा - 'इससे उत्तम क्या होगा कि हमारे द्वारा बालकोंको ज्ञानदान मिले।' लोगोंने सुनकर हर्षध्वनि की और उसी समय केशर तथा पगड़ी बुलाई गई । पञ्चोंने सोंरया वंशके प्रमुख व्यक्तियोंको पगड़ी बाँधी और केशरका तिलक लगाकर 'सिंघईजी जुहार' का दस्तूर अदा किया । पश्चात् श्री सिं. दामोदरदासजीको भी केशरका तिलक लगाकर पगड़ी बाँधी और 'सवाई सिंघई' पदसे सुशोभित किया । इस तरह जैन पाठशालाके लिए १००००) दस हजारका मूलधन अनायास हो गया। पतित पावन जैनधर्म
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मड़ावरा से चलकर हम लोग श्री पं. मोतीलालजी वर्णीके साथ उनके ग्राम जतारा पहुँचे। वहाँ पर आनन्दसे भोजन और पण्डितजीके साथ धर्मचर्चा करना यही काम था। यहाँ पर एक जैनी ऐसे थे, जो २५ वर्षसे जैन समाजके द्वारा बहिष्कृत थे। उन्होंने एक गहोईकी औरत रख ली थी । उसके एक कन्या हुई । उसका विवाह उन्होंने विनैकावालके यहाँ कर दिया था। कुछ दिनके बाद वह औरत मर गई और लड़की अपनी ससुरालमें रहने लगी। जातिसे बहिष्कृत होनेके कारण लोग उन्हें मन्दिरमें दर्शन करनेके लिए भी नहीं आने देते थे और जन्मसे ही जैनधर्मके संस्कार होनेसे अन्य धर्ममें उनका उपयोग लगता नहीं था । एक दिन हम और पं. मोतीलालजी तालाबमें स्नान करनेके लिए जा रहे थे । मार्गमें वह भी मिल गये। श्री वर्णी मोतीलालजीसे उन्होंने कहा कि 'क्या कोई ऐसा उपाय है कि जिससे मुझे जिनेन्द्र भगवान्के दर्शनोंकी आज्ञा मिल जावे ?' मोतीलालजी बोले - 'भाई ! यह कठिन है । तुम्हें जाति से खारिज हुए २५ वर्ष हो गये तथा तुमने उसके हाथका भोजन भी खाया है, अतः यह बात बहुत कठिन है ।' हमारे पं. मोतीलालजी वर्णी अत्यन्त सरल थे। उन्होंने ज्यों-की-त्यों बात कह दी। पर मैंने वर्णीजीसे निवेदन किया कि 'क्या मैं इनसें कुछ पूछ सकता हूँ ?' आप बोले- 'हाँ, जो चाहो सो पूछ सकते हो।' मैंने उन आगन्तुक महाशयसे कहा- 'अच्छा यह बताओ कि इतना भारी पाप करने पर भी तुम्हारी जिनेन्द्रदेवके दर्शनकी रुचि कैसे बनी रही ?' वह बोले'पण्डितजी ! पाप और वस्तु है तथा धर्ममें रुचि होना और वस्तु है । जिस समय मैंने उस औरतको रक्खा था, उस समय मेरी उमर तीस वर्षकी थी, मैं युवा था, मेरी स्त्रीका देहान्त हो गया, मैंने बहुत प्रयत्न किया कि दूसरी शादी हो जावे । मैं यद्यपि शरीर से निरोग था और द्रव्य भी मेरे पास २००००) से कम नहीं था,
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