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मेरी जीवनगाथा
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दामोदर सिंघईकी ओरसे थीं और एक पंचायती थी। तीनों दिन पूजापाठ और शास्त्रप्रवचनका अच्छा आनन्द रहा । अन्तमें मैंने कहा-'भाई एक प्रस्ताव परवार सभामें पास हो चुका है कि जो ५०००) विद्यादानमें देवे उसे सिंघई पद दिया जावे। इस ग्राममें सौ घरसे ऊपर हैं, परन्तु बालकोंको जैनधर्मका ज्ञान करानेके लिए कुछ भी साधन नहीं है। जहाँ पर १० मन्दिर हों, बड़े-बड़े बिम्ब, सुन्दर-सुन्दर वेदिकाएँ और अच्छे-अच्छे गान-विद्याके जाननेवाले हों वहाँ धर्मके जाननेका कुछ भी साधन न हो, यह यहाँ इस समाजको भारी कलंककी बात है, अतः मुझे आशा है कि सोरया वंशके महानुभाव इस त्रुटिकी पूर्ति करेंगे।'
___मेरे बाल्यकालके मित्र श्री सोरया हरीसिंहजी हँस गये। उनका हँसना क्या था, सिंघई पद प्राप्तिकी सूचना थी। उनके हास्यसे मैंने आगत जनसमुदायके बीच घोषणा कर दी कि बड़ी खुशीकी बात है कि हमारे बाल्यकालीन मित्रने सिंघई पदके लिए ५०००) का दान दिया। उससे एक जैन पाठशाला खोली जावे। मित्रने कहा-'हमको १० मिनटका अवकाश मिले। हम अपने बन्धुवर्गसे सम्मत्ति ले लेवें। समाजने कहा-'कोई क्षति नहीं।' पश्चात् उन्होंने अपने भाइयोंसे तथा बहोरेलालजी सोरया, रामलाल आदिसे सम्मत्ति माँगी। सबने ५०००) का दान सहज स्वीकार किया, परन्त पञ्चोंसे यह भिक्षा माँगी कि कल हमारे यहाँ पंक्ति-भोजन होना चाहिए। सभीने सहज स्वीकृति दे दी। इसीके बीच एक अवतार-कथा हुई, जिसे लिख देना समुचित समझता हूँ।
जिस समय हमारे मित्र अपने बन्धुवर्गसे सम्मति कर रहे थे, उस समय मैंने श्री दामोदर सिंघईसे कहा कि 'भैया ! आप तो जानते हैं कि ५०००) में क्या पाठशाला चल सकेगी ? २५) ही सूदके आवेंगे। इतनेमें तो एक अध्यापक ही न मिल सकेगा। आशा है आप भी ५०००) का दान देकर ग्रामकी कीर्तिको अजर-अमर कर देवेंगे। ५०) मासिकमें जैन पाठशाला सदैव चलती रहेगी। आपके पूर्वजोंने तो गगनचुम्बी मन्दिर बनाकर रथ चलाये और अनुपम पुण्यबन्धका लाभ लिया, आप विद्यारथ चलाकर बालकोंके लिए ज्ञानदानका लाभ दीजिए।' प्रथम तो आप बोले कि 'हमारे बड़े भाईकी औरत, जो घरकी मालकिन है तथा मेरे दो पुत्र हैं, उनसे सम्मति लिए बिना कुछ नहीं कर सकता। मैंने कहा-'आप स्वयं मालिक हैं, सब कुछ कर सकते हैं तथा आपकी भौजीको इसमें पूर्ण सम्मति है। मैं उनसे पूछ चुका हूँ। दैवयोगसे वे शास्त्रसभामें आईं थीं। मैंने उनसे कहा कि 'सिं. दामोदरजी जो कि आपके देवर हैं, ५०००)
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