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________________ मड़ावरामें विमानोत्सव I खाया। खाकर निश्चिन्त हुए और चलनेके लिये ज्यों ही उद्यमी हुए त्योंही वह . सामने खड़ी हुई औरत रोने लगी। हमने उससे पूछा- 'क्यों रोती है ?' उसने हितैषी जान अपनी कथा कहना प्रारम्भ किया- 'मेरे पतिको गुजरे हुए आठ माह हुए हैं, हमारा जो देवर है वह बराबर लड़ता है और वह मेरे खाने में त्रुटि करता है । यद्यपि मेरे यहाँ बीस बीघा जमीन है, पर्याप्त अन्न भी होता है, परन्तु हमारी सहायता नहीं करता, मैं मारी-मारी फिरती हूँ । आज यह विचार किया कि पिताके घर चली जाऊँ । वहीं अपना निर्वाह करूँगी । यद्यपि मैं शुद्र कुलमें जन्मी हूँ और मेरे यहाँ दूसरा पति रखनेका रिवाज है, परन्तु मैंने देखा कि दूसरा पति रखनेवाली औरत को बड़े-बड़े कष्ट सहना पड़ता है, अतः पतिके रखनेका विचार छोड़कर घर जा रही हूँ । यही मेरी राम कहानी है ।' 135 हमारे पास कुछ था नहीं, केवल धोती और दुपट्टा था तथा धोतीमें कुछ रुपये थे। मैंने वह धोती, दुपट्टा तथा सब रुपये उसे दे दिया । केवल नीचे लंगोट रह गया । सेठजी बोले- 'इस वेषमें सागर कैसे जाओगे ?' मैंने कहा- 'चिन्ताकी कोई बात नहीं । यहाँ से चलकर तीन मीलपर सामायिक करेंगे । पश्चात् रात्रिके सात बजे ग्राममें जावेंगे। वहाँ पर धोती आदि सब वस्त्र. रखे ही हैं। इस प्रकार हम और कमलापतिजी वहाँ से चले । बीचमें नित्य नियमकी 1 विधि कर सागर पहुँच गये। चोरकी तरह घर पहुँचे। उस समय बाईजी मन्दिरको जा रही थी। मुझे देखकर बोलीं- 'भैया वस्त्र कहाँ हैं ?' मैं चुप रह गया। कमलापतिजीने जो कुछ कथा थी, कह दी। बाईजी हँसती हुई मन्दिर चली गईं। आधा घंटा बाद हम दोनों भी शास्त्रप्रवचनमें पहुँच गए | पश्चात् कमलापति सेठ बरायठा चले गये और उनके साथ हमारा गाढ़ा स्नेह हो गया । मड़ावरामें विमानोत्सव Jain Education International I मड़ावरासे, जहाँ पर कि मेरा बाल्यकाल बीता था, एक पत्र इस आशयका आया कि 'आप पत्रके देखते ही चले आइये । यहाँ पर श्री जिनेन्द्र भगवान्‌के विमान निकालनेका महोत्सव है । उसमें दो हजारके लगभग भीड़ होगी।' मैं वहाँ के लिए प्रस्थान कर महरौनी पहुँचा । वहाँसे पण्डित मोतीलालजी वर्णीको साथमें लिया। उस समय आप महरौनीमें अध्यापकी करते थे । बरायठासे सेठ कमलापतिजीको बुलाया और सानन्द मड़ावरा पहुँच गए। उस समय वहाँ समाजमें परस्पर अत्यन्त प्रेम था। तीन दिनका उत्सव था। दो पंगत श्री For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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