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पुस्तिका देखी तब हँसते हुए बोले 'अरे ! इसमें यह क्या लिख दिया ? मेरा जन्म तो हँसेरामें हुआ था, तुमने लुहरीमें लिखा है और मेरा जन्मसंवत १६३१ है, पर तुमने १६३० लिखा है। बाकी सब स्तुतिवाद है। इसमें जीवनकी झाँकी है ही कहाँ ?' मैंने कहा, 'बाबाजी ! आप अपना जीवनचरित स्वयं लिखते नहीं हैं और न कभी किसीको क्रमबद्ध घटनाओंके नोट्स ही कराते हैं। इसीसे ऐसी गलतियाँ हो जाती हैं। मैं क्या करूँ ? लोगों के मुँहसे मैंने जैसा सुना वैसा लिख दिया। सुनकर वह हँस गये और बोले कि अच्छा अब नोट्स करा देवेंगे। मुझे प्रसन्नता हुई। परन्तु नोट्स लिखानेका अवसर नहीं आया। दूसरी वर्ष जबलपुरमें आपका चातुर्मास हुआ। वहाँ श्री ब्र. कस्तूरचन्द्रकी नायक, उनकी धर्मपत्नी तथा ब्र. सुमेरुचन्द्रजी जगाधरी आदिने जीवन-चरित्र लिख देनेकी आपसे प्रेरणा की। नायकन बाईने तो यहाँ तक कहा कि महाराज ! जबतक आप लिखना शुरू न कर देंगे तबतक मैं भोजन न करूँगी। फलतः अवकाश पाकर उन्होंने स्वय ही लिखना शुरू किया और प्रारम्भसे लेकर ईसरीसे सागरकी ओर प्रस्थान करने तकका घटना-चक्र क्रमशः लिपिबद्ध कर लिया।
जबलपुरसे हमारे एक परिचित बन्धुने मुझे पत्र लिखा कि पूज्य वर्णीजीने समयसारकी टीका तथा अपना जीवनचरित लिखा है उसे आप प्रकाशित करनेके लिए प्राप्त करनेका प्रयत्न करें। मित्रकी बातपर मुझे विश्वास नहीं हुआ और मैंने उन्हें लिख दिया कि वर्णीजीने समयसारकी टीका लिखी है, यह तो ठीक है, पर जीवनचरित भी लिखा है, इस बातपर मुझे विश्वास नहीं होता।
___ भारतवर्षीय दि. जैन विद्वतपरिषद्की ओरसे सागरमें सन् १६४७ के मई-जूनमें शिक्षणशिविरका आयोजन हुआ था। उस समय पूज्य वर्णीजी मलहरामें थे, मैं शिविरके समय सागर पधारनेकी प्रार्थना करनेके लिए मलहरा गया। ब्र.चिदानन्दजीने (अब आप क्षुल्लक हैं) कहा कि बाबाजीने अपना जीवन-चरित लिख लिया है। मध्याह्नकी सामायिकके बाद वे उसे सुनावेंगे। सुनकर मेरे हर्षका पारावार न रहा। 'सम्भव है' यह स्वयं ही कभी तेरी इच्छा पूर्ण करेंगे' स्वर्गीय दीपचन्दजी वर्णीके उक्त शब्द स्मृतिमें आ गये। २ बजेसे पूज्य वीजीने जीवन-चरितके कुछ प्रकरण सुनाये। एक प्रकरण बाईजीकी सम्मेदशिखर यात्रा और श्रीपार्श्वनाथ स्वामीके मन्दिरमें आलोचनाके रूपमें उनकी आत्मकथा का भी था। सुनकर हृदय भर आया।
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