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________________ आँसू निकल पड़ते हैं और कभी विनोदपूर्ण घटना सुनकर सभी लोग हँसने लगते हैं। मुझे तो लगता है कि इनके जीवनचरितसे लोगोंको बड़ा लाभ होगा। उन्होंने कहा-'पन्नालाल ! तू समझता है कि इनका जीवनचरित लिखना सरल काम है और मैं इनके साथ रहता हूँ इसलिए समझता है कि मैं इन्हें जानता हूँ। पर इनका जीवनचरित इनके सिवाय किसी अन्य लेखकको लिखना सरल नहीं है और ये इतने गम्भीर पुरुष हैं कि वर्षों के सम्पर्कसे भी इन्हें समझ सकना कठिन है। सम्भव है तेरी इच्छा ये स्वयं ही कभी पूर्ण करेंगे।' बाबूजीका उत्तर सुनकर मैं चुप रह गया और उस समयसे पूज्य वर्णीजीमें मेरी श्रद्धाका परिणाम कई गुना अधिक हो गया। ____ मैं पहले लिख चुका हूँ कि वर्णीजी इस युगके सर्वाधिक श्रद्धा-भाजन व्यक्ति हैं। इन्होंने अपनी निःस्वार्थ सेवाओंके द्वारा जैन समाजमें अनूठी जागृति कर उसे शिक्षाके क्षेत्रमें जो आगे बढ़ाया है वह एक ऐसा महान् काम है कि जिससे जैन समाजका गौरव बढ़ा है। जहाँ तत्त्वार्थसूत्रका मूल पाठ कर देनेवाले विद्वान् दुर्लभ थे, वहाँ आज गोम्मटसार तथा धवलादि सिद्धांत-ग्रन्थोंका पारायण करनेवाले विद्वान् सुलभ हैं। यह सब पूज्य वर्णीजीकी सतत साधनाओंका ही तो फल है। पूज्य वीजीकी आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्रसे प्रकाशमान है। उनके दर्शन करने मात्रसे दर्शकके हृदयमें शान्तिका संचार होने लगता है और न जाने कहाँसे पवित्रताका प्रवाह बहने लगता है। बनारसमें स्याद्वाद विद्यालय और सागरमें श्री गणेश दि. जैन विद्यालय स्थापित कर आपने जैन संस्कृतिके संरक्षण तथा पोषणके सबसे महान कार्य किये हैं। इतना सब होनेपर भी आप अपनी प्रशंसासे दूर भागते हैं। अपनी प्रशंसा सुनना आपको बिल्कुल पसन्द नहीं है। और यही कारण रहा कि आप अपना जीवनचरित लिखनेके लिए बार-बार प्रेरणा होनेपर भी उसे टालते रहे। वे कहते रहे कि 'भाई ! कुन्द कुन्द, समन्तभद्र आदि लोककल्याणकारी उत्तमोत्तम महापुरुष हुए, जिन्होंने अपना चरित्र कुछ भी नहीं लिखा। मैं अपना जीवन क्या लिखू ? उसमें है ही क्या ? अभी पिछले वर्षों में पूज्य श्री जब तीर्थराज सम्मेदशिखरसे पैदल भ्रमण करते हुए सागर पधारे और सागरकी समाजने उनके स्वागत-समारोहका उत्सव किया तब वितरण करनेके लिए मैंने जीवनझाँकी नामकी १६ पृष्ठात्मक एक पुस्तिका लिखी थी। उत्सवके बाद पूज्य वर्णीजीने जब यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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