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बहुत बार प्रार्थनाके बाद आपने सब कापियाँ मुझे दे दी। मुझे ऐसा लगा, मानो निधि मिल गई हो।
__अवकाश पाते ही मैंने प्रेस-कापी करना शुरू कर दिया, लगातार ३-४ माह काम करनेके बाद पूरी प्रेस-कापी तैयार कर पूज्यश्रीको दिखानेके लिए बरुआसागर गया। वहाँ ३-४ दिन अनवरत बैठकर आपने पूरी प्रेस-कापी देखी तथा सुनी। भाग्यवश उसी समय यहाँ पं. फूलचन्द्रजी शास्त्री बनारस, पं. पन्नालालजी काव्यतीर्थ बनारस और पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य बीना भी पहुँच गये। बाबू रामस्वरूपजी वहाँ थे ही। सब का आग्रह हुआ कि इसका प्रकाशन श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमालासे होना चाहिए। इसके पहले इसी प्रकारकी प्रेरणा पं. जगन्मोहनलालजी कटनीसे भी प्राप्त हो चुकी थी। अतः मैंने पूज्य वीजीकी सम्मत्यनुसार पूरी प्रेस-कापी उसी वक्त पं. फूलचन्द्रजी शास्त्रीको सौंप दी और उन्होंने प्रकाशित करना भी शुरू कर दिया। ईसरीसे प्रस्थान करनेके बादके कई प्रकरण पूज्य वर्णीजीने बादमें लिखकर दिये, जिनकी प्रेस-कापी कर मैं पं. फूलचन्द्रजीके पास भेजता रहा। पं. फूलचन्द्रजीको इसके प्रकाशन में एक वर्ष तक काफी श्रम करना पड़ा है। इस पुस्तकका 'मेरी जीवन-गाथा' नाम भी बरुआसागरमें ही निश्चित हुआ था।
पाठकगण स्वयं पढ़कर देखेंगे कि 'मेरी जीवनगाथा' पुस्तक कितनी कल्याणप्रद है। ये यह भी अनायास समझ सकेंगे कि एक साधारण पुरुष कितनी विपदाओंकी आँच सहकर खरा सोना बना है। इस पुस्तकको पढ़कर कहीं पाठकों के नेत्र आँसुओंसे भर जावेंगे तो कहीं हृदय आनन्दमें उछलने लगेगा और कहीं वस्तुस्वरूपकी तात्त्विक व्याख्या समझ करके शान्ति-सुधाका रसास्वाद करने लगेंगे। इसमें सिर्फ जीवन-घटनाएँ नहीं हैं, किन्तु अनेक तात्त्विक उपदेश भी हैं। जिससे यह एक धर्मशास्त्रका ग्रन्थ बन गया है। पूज्यश्रीने अपने जीवनसे सम्बद्ध अनेकों व्यक्तियोंका इसमें परिचय दिया है, जिससे यह आगे चलकर इतिहासका भी काम देगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
अन्तमें मेरी भावना है कि इसका ऐसे विशाल पैमाने पर प्रचार हो जिससे सभी इससे लाभान्वित हो सकें। वर्णीभवन, सागर
तुच्छ २/२/१६४६
पन्नालाल जैन
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