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________________ मेरी जीवनगाथा 132 सुनकर घर जाना भूल जाते थे। पूजनके बाद लोग डेरापर जाते और वहाँसे सब एकत्र हो पंगतके लिए पहुँचते थे। दो हजार मनुष्योंका एक साथ भोजन था ! भोजनमें शाक, पूरी और मिठाई रहती थी। इस तरह भोजन कर लोग मध्याह्नका समय आमोद-प्रमोदमें व्यतीत करते और सायंकालका भोजन कर बाहर जाते थे। पश्चात् सन्ध्या वन्दना करनेको मन्दिर जाते थे। उस समयका दृश्य भी अपूर्व होता था। एक घण्टा भगवानकी गानतानके साथ आरती होती थी। कई तो ऐसा अद्भुत नृत्य करते थे कि जिसे देखकर ताण्डवनृत्यका स्मरण हो आता था। आरतीके पश्चात् दो घण्टा शास्त्रप्रवचनमें जाते थे। शास्त्रमें रत्नकरण्डश्रावकाचार और पद्मपुराणकी वचनिका होती थी। शास्त्र बाँचनेके बाद यह उपदेश होता था कि भाई ! रत्नद्वीपमें आये हो, कुछ तो लेकर जाओ। उपदेशसे प्रभावित होकर कोई कन्दमूल त्यागता था, कोई बैंगन त्यागता था, कोई रात्रिजलका त्याग करता था, कोई बाजारकी मिठाई छोड़ता था और कोई रात्रिके बने हुए भोजनका त्याग करता था। इस प्रकार तीन दिन बड़े आनन्दके साथ बीते। तीसरे दिन जल बिहार हुआ-श्रीजीका अभिषेक होकर पूजन हुआ। अनन्तर फूलमाला हुई। फूलमाला बड़े गानेके साथ होती थी। उसमें मन्दिरकी प्रायः अच्छी आय हुई थी। अन्तमें पाठशालाकी अपील की गई। उसमें करीब ५००) आ गये। उस समयके ५००) आजके ५०००) के बराबर हैं। जब यह सब कार्य निर्विघ्न समाप्त हो गया और मैं सागर जाने लगा तब सेठ कमलापतिजीने मुझे अपने घर रोक लिया। __हम दोनों प्रातःकाल गिरारके मन्दिरके दर्शनार्थ गये। यह स्थान बरायठासे तीन मीलकी दूरी पर है। मन्दिरके नीचे ही अथाह जलसे भरी हुई नदी बहती है और सब तरफ अटवी है। अत्यन्त रमणीय भूमि है। वह तप करनेके योग्य स्थान है। परन्तु पञ्चमकालमें तप करनेवाले दुर्लभ हैं। बरायठा ग्राममें ३०० जैनी होंगे जो सब तरहसे सम्पन्न हैं, कुटुम्बवाले भी हैं, परन्तु इतने मोही हैं कि पुत्र-पौत्रादिके रहते हुए भी घर छोड़नेमें असमर्थ हैं। यहाँसे एक कोश भीकमपुर है। वहाँ भी दस घर जैनियोंके हैं जो उत्तम हैं। एक भाई तो बहुत ही ज्ञाता हैं, परन्तु ममतावश घर नहीं छोड़ सकते। इस प्रकार हम दोनों दो स्थानोंके दर्शन कर बरायठा आ गये। पश्चात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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