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________________ 130 मेरी जीवनगाथा व्यापारी धर्मादाय देवें तो सम्भव है उपयुक्त आमदनी होने लगे। इसके अनन्तर कई महाशयोंसे सम्मत्ति ली। सभीने कहा बहुत उत्तम विचार है । एक दिन कटराके सब पञ्चोंसे निवेदन किया कि आपके ग्राममें यह एक ही पाठशाला ऐसी है जिसके द्वारा प्रान्त भरका उपकार होनेकी सम्भावना है। यदि आप लोग धर्मादाय देनेकी अनुकम्पा करें तो पाठशालाकी स्थिरता अनायास ही हो जावे, क्योंकि उसमें आय कम है और व्यय बहुत है । श्रीयुत मलैया प्यारेलालजी, श्रीयुत मलैया शिवप्रसादजी, श्रीयुत सिंघई मौजीलालजी, श्रीयुत सिंघई होतीलालजी, श्रीयुत सिंघई राजाराम मुन्नालालजी और श्रीयुत सिंघई मनसुखलालजी दलाल आदिने बड़ी ही प्रसन्नताके साथ एक आना सैकड़ा धर्मादाय लगा दिया, इससे पाठशालाकी आर्थिक व्यवस्था कुछ-कुछ सँभल गई । इसी समय श्री सिंघई कुन्दनलालजीसे मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया । आप मुझे अपने भाईके समान मानने लगे । मासमें प्रातः १० दिन आपके घर भोजन करना पड़ता था । एक दिन मैंने आपसे पाठशालाकी आय सम्बन्धी चर्चा की तो आपने बड़ी सान्तवना देते हुए कहा कि चिन्ता मत करो, हम कोशिश करेंगे। आप घी और गल्लेके बड़े भारी व्यापारी हैं। आपके और श्रीयुत माणिकचौकवाले कन्हैयालालजीके प्रभावसे एक पैसा प्रतिगाड़ी धर्मादाय गल्ले बाजारसे हो गया। इसी प्रकार आपने घीके व्यापारियोंसे भी कोशिश की, जिससे फ्री मन आध पाव पाठशालाको मिलने लगा । इस प्रकार हजारों रुपये पाठशालाकी आय हो गई। यह तो स्थानीय सहायताकी बात रही । देहातमें भी जहाँ कहीं धार्मिक उत्सव होते, वहाँसे पाठशालाको सैकड़ों रुपये मिलते थे। इस तरह बुन्देलखण्डके केन्द्रस्थान सागरमें श्रीसत्तर्कसुधारतरंगिणी जैन पाठशालाका पाया कुछ ही समयमें स्थिर हो गया । पाठशालाकी सहायताके लिए संस्कृत पढ़ने की ओर छात्रोंका आकर्षण बढ़ने लगा, इसलिए छात्रसंख्या प्रतिवर्ष अधिक होने लगी। छात्रों और अध्यापकोंका समूह ही तो शिक्षासंस्था है। इस संस्थामें विद्वान् अच्छे रक्खे जाते थे और उन्हें वेतन भी समयानुकूल अच्छा दिया जाता था, जिससे वे बड़ी तत्परताके साथ काम करते थे । यही कारण था कि संस्थाने थोड़े ही समयमें लोगोंके हृदयमें घर कर लिया । मैं पाठशालाकी सहायताके लिए देहातमें जाने लगा। एक बार बरायठा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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