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________________ सागरमें श्री रात्तर्कसुधातरंगिणी जैन पाठशालाकी स्थापना इन सब व्यवहारोंसे मेरा चित्त खिन्न होने लगा और यह बात मनमें आने लगी कि सागर छोड़ कर चला जाऊँ ! परन्तु फिर मनमें सोचता कि 'श्रेयांसि बहुविध्नानि' अच्छे कार्योंमें विघ्न आया ही करते हैं, मेरा अभिप्राय तो निर्मल है, मैं तो यही चाहता हूँ कि यहाँके छात्र प्रौढ़ विद्वान् बनें। जिन्हें षष्ठी - पञ्चमीका विवेक नहीं, वे क्या रत्नकरण्ड श्रावकाचार पढ़ेंगे। केवल तोतारटन्तसे कोई लाभ नहीं हो पाता । भाषाका ज्ञान हो जानेपर उसमें वर्णित पदार्थका ज्ञान अनायास ही हो जाता है...... अतः सागर छोड़ना उचित नहीं । 129 श्री पूर्णचन्द्रजी बड़े गम्भीर स्वभावके हैं। उन्होंने कहा कि 'काम करते जाइये, आपत्तियाँ आपसे आप दूर होती जायेंगीं।' 'दैवेच्छा वलीयसी' । दो वर्षके बाद पाठशालासे छात्र प्रवेशिकामें उत्तीर्ण होने लगे। तब लोगोंको कुछ संतोष हुआ और रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि संस्कृत ग्रन्थोंका अन्वय सहित अभ्यास करने लगे तब तो उनके हर्षका ठिकाना न रहा । Jain Education International पाठशालाके सर्वप्रथम छात्र श्री मुन्नालालजी पाटनवाले थे । प्रवेशिका में सर्वप्रथम आप ही उत्तीर्ण हुए थे। आप बड़े ही प्रतिभाशाली छात्र थे । आपने प्रारम्भसे लेकर न्यायतीर्थ तकका अध्ययन केवल ५ वर्षमें कर लिया था। आज आप उसी पाठशालाके प्रधानमंत्री हैं और सागरके एक कुशल व्यापारी । कालक्रमसे इसी पाठशालामें पं. निद्धामल्लजी, पं. जीवन्धरजी शास्त्री इन्दौर, पं. दरबारीलालजी वर्धा, पं. दयाचन्द्रजी शास्त्री, पं. माणिकचन्द्रजी न्यायतीर्थ तथा पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य आदि अनेकों छात्र प्रविष्ट हुए, जो आज समाजके प्रख्यात विद्वान् माने जाते हैं। अब जिस मकानमें पाठशाला थी, वह मकान छोटा पड़ने लगा । उस समय सागरमें ऐसा कोई मकान या धर्मशाला न थी, जिसमें २० छात्रोंका निर्वाह हो सके, अतः निरन्तर चिन्ता रहने लगी, परन्तु यदि भवितव्यता अच्छी होती है तो सब निमित्त अनायास मिलते जाते हैं। श्री राईसे बजाजने, जो कि समैयाचैत्यालयके प्रबन्धक थे, चैत्यालयका एक बड़ा मकान, जो कि चमेली चौक में था, पाठशालाके लिए दे दिया और पाठशाला उसमें चली गई । वहाँ दो अध्यापकोंके रहने योग्य स्थान भी था । उस समय वैसा मकान ४०) मासिक किरायेपर भी नहीं मिलता। इस तरह मकानकी चिन्ता तो दूर हुई। पर व्यय स्थायी आमदनीसे अधिक होने लगा, अतः सब कार्यकर्ताओंको चिन्ता होने लगी । अन्तमें यह निर्णय किया कि कटरा चला जावे। यदि वहाँके थोक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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