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मेरी जीवनगाथा
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इस पाठशालाका प्रारम्भिक विवरण इस प्रकार है-यहाँ पर एक छोटी पाठशाला थी, जिसमें पं. मूलचन्द्रजी अध्यापन कराते थे। उस पाठशालाके मंत्री श्री पूर्णचन्द्रजी बजाज थे। आप बहुत ही उत्साही और उद्योगी पुरुष हैं। आपके ही प्रयत्नसे वह छोटी पाठशाला श्रीसत्तर्कसुधा-तरंगिणी नाममें परिवर्तित हो गई। आपके सहायक श्री पन्नालालजी बड़कुर तथा श्री मोदी धर्मचन्द्रजीके लघुभ्राता कन्छेदीलालजी आदि थे। इन सबकी सम्मत्ति इस कार्यमें थी, परन्तु मुख्य प्रश्न इस बातका था कि इतना द्रव्य कहाँसे आवे, जिससे कि छात्रावास सहित पाठशालाका कार्य अच्छी तरह चल सके। पर जो कार्य होनेवाला होता है उसे कौन रोक सकता है ? सागरमें कण्डयाका वंश प्रसिद्ध है। इसमें एक हंसराज कण्डया थे। उनके पास अच्छी सम्पत्ति थी। अचानक आपका स्वर्गवास हो गया। धनका अधिकार उनकी पुत्रीको मिला। उनके भतीजे श्री कण्डया नन्हूमलजीने कोई आपत्ति नहीं की, किन्तु उनके दामादसे कहा कि आप १००००) पाठशालाके लिए दे दो। ऐसा करनेसे उनकी कीर्ति रह सकेगी। दामादने सहर्ष १०००१) विद्यादानमें दिया और साथ ही नन्हूमलजीने एक कोठी पाठशालाको लगा दी। जिसका मासिक किराया १००) आता था। इस प्रकार द्रव्यकी पूर्ति हुई। तब अक्षयतृतीयाके दिन बड़े गाजे बाजेके साथ पाठशालाका शुभ मुहूर्त श्रीशिवप्रसादजीके गृहमें सानन्द हो गया।
मुख्याध्यापक श्री सहदेवजी झा नैयायिक, श्री छिंगे शास्त्री वैयाकरण, श्री पं. मूलचन्द्रजी सुपरिन्टेन्डेन्ट, १ रसोइया, १ चपरासी और १ बर्तन मलनेवाला, इतना उस पाठशालाका परिकर था। पांच छात्रों द्वारा पाठशाला चलने लगी। कार्य उपयोगी था, अतः बाहरके लोगोंसे भी सहायता मिलने लगी।
पढ़ाई क्वीन्स कालेजके अनुसार होती थी। जब तक छात्र प्रवेशिकामें उत्तीर्ण नहीं होता था तब तक उसे धर्मशास्त्र नहीं पढ़ाया जाता था.....इस पर समाजमें बड़ी टीका-टिप्पणियाँ होने लगीं। कोई कहता-'आखिर गणेशप्रसाद वैष्णव ही तो हैं। उन्हें जैनधर्मका महत्त्व नहीं आता। उनके द्वारा जैनधर्मका उपकार कैसे हो सकता है ?' कोई कहता-जहाँ पर ब्राह्मण अध्यापक है और उन्हींकी पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं वहाँके शिक्षित छात्र जैनधर्मकी श्रद्धा कर सकेंगे, यह संभव नहीं। और कोई कहता-'अरे यहाँके छात्रोंसे तो णमोकारमन्त्र तकका शुद्ध उच्चारण नहीं होता। कोई यह भी कह उठते कि यह बात छोड़ो, उन्हें तो देवदर्शन तक नहीं आता.....ऐसी पाठशालाके रखनेसे क्या लाभ ?'
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