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________________ सागरमें श्री सत्तर्कसुधातरंगिणी जैन पाठशालाकी स्थापना 127 इस पाठशालाकी उन्नतिमें पं. मूलचन्द्रजीका विशेष परिश्रम था। आप बहुत ही सुयोग्य व्यक्ति हैं। आपके तत्कालीन प्रबन्धको देखकर अच्छे-अच्छे मनुष्योंकी विद्यादानमें रुचि हो जाती थी। आपकी वचनकला इतनी मधुर होती थी कि नहीं देनेवाला भी देकर जाता था। यहाँ पर (बण्डामें) परवारोंके तीन खानदान प्रसिद्ध थे-साहु खानदान, चौधरी खानदान और भायजी खानदान, गोलापूर्वोमें सेठ धनप्रसादजी प्रसिद्ध व्यक्ति थे। इन सबके प्रयत्नसे पाठशाला प्रतिदिन उन्नति करती गई। हम यह पहले लिख आये हैं कि इस पाठशालाकी पढ़ाई प्रवेशिका तक ही सीमित थी। उसमें संस्कृत विद्याके पढ़नेका समुचित प्रबन्ध न था। पण्डित मूलचन्द्रजी कातन्त्र व्याकरण तक ही संस्कृत पढ़े थे, अतः उनसे संस्कृतकी पढ़ाई होना असम्भव था। यह सब देखकर मेरे मनमें यहीं चिन्ता उठा करती थी कि जिस देशमें प्रतिवर्ष लाखों रुपये धर्म कार्यमें व्यय होते हों वहाँके आदमी यह भी न जानें कि देव, शास्त्र और गुरुका क्या स्वरूप है ? अष्ट मूलगुण क्या हैं ? यह सब अज्ञानका ही माहात्म्य है। मुझे इस प्रान्तमें एक विशाल विद्यालय और छात्रावासकी कमी निरन्तर खलती रहती थी। सागरमें श्री सत्तर्कसुधातरंगिणी जैन पाठशालाकी स्थापना ललितपुरमें विमानोत्सव था, मैं भी वहाँ पर गया, उसी समय सागरके बहुतसे महानुभाव भी वहाँ पधारे। उनमें श्री बालचन्द्रजी सवालनवीस, नन्दूमलजी कण्डया, कडोरीमल्लजी सर्राफ और पं. मूलचन्द्रजी बिलौआ आदि थे। इन लोगोंसे हमारी बातचीत हुई और मैंने अपना अभिप्राय इनके समक्ष रख दिया। लोग सुनकर बहुत प्रसन्न हुए, परन्तु प्रसन्नतामात्र तो कार्यकी जननी नहीं। द्रव्यके बिना कार्य कैसे हो इत्यादि चिन्तामें सागरमें महाशय व्यग्र हो गये। श्रीयुत् बालचन्द्रजी सवालनवीसने कहा कि चिन्ता करनेकी बात नहीं, सागर जाकर हम उत्तर देवेंगे। लोग सागर गये वहाँसे उत्तर आया-'आप आइये, यहाँ पर पाठशालाकी व्यवस्था हो जावेगी।' मैंने ललितपुरसे उत्तर दिया-'आपका लिखना ठीक है परन्तु हमारे पास नैयायिक सहदेव झा हैं, उनको रखना पड़ेगा। हम उनसे विद्याध्ययन करते हैं।' पत्रके पहुँचते ही उत्तर आया 'आप उन्हें साथ लेते आइये जो वेतन उनका होगा हम देवेंगे।' हम नैयायिकजी को लेकर सागर पहुँच गये। अक्षयतृतीया वीर निर्वाण सं. २४३५, वि.सं. १६६५ को पाठशाला खालनेका मुहूर्त निश्चय किया गया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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