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मेरी जीवनगाथा
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सूत्र बांचना जानते हों, जिन्हें भक्तामर कण्ठ हो, जो पदमपुराण, रत्नकरण्डश्रावकाचार सदासुखरायजीवाला, संस्कृतमें देव शास्त्र और गुरुकी पूजा तथा दशलक्षण जयमाल मूलकी वचनिका करना जानते हों वे पण्डित कहलाते थे। यदि कोई गुणठाणाकी चर्चा जानता हो तब तो कहना ही क्या है ? क्रियाकोषका जाननेवाला चरणानुयोगका पण्डित माना जाता था और प्रतिष्ठापाठ करानेवाले तो महान् पण्डित माने जाते थे ।
लोग बहुत सरल थे। भायजी साहबकी आज्ञाको गुरुकी आज्ञा समझते थे। ज्ञानकी न्यूनता होनेपर भी लोगोंकी प्रवृत्ति धर्ममें बहुत रहती थी, पापसे बहुत डरते थे, यदि किसीसे धोखेमें अण्डा फूट गया तो उसको महान् प्रायश्चित्त करना पड़ता था, परस्त्रीसेवीको जातिसे च्युत कर दिया जाता था और जब तक उससे एक पक्का और कच्चा भोजन न ले लें तब तक उसका मन्दिर बन्द रहता था। जब तक दो पंक्ति भोजन और यथाशक्ति मन्दिरको दण्ड न देवे तब तक उसे मन्दिर नहीं जाने देते थे और न उसका कोई पानी ही पीता था। यही नहीं जब तक वह अपने घरसे विवाह न करले तब तक कोई उसे विवाहमें नहीं बुलाते थे । इस प्रकार कठिनसे कठिन दण्ड- विधान उस समय थे, अतः उन दिनों आज जैसे पाप न थे ।
इतना सब होनेपर भी लोगोंमें परस्पर बड़ा प्रेम रहता था । यदि किसीके घर कोई नवीन पदार्थ भोजनका कहींसे आया तो मोहल्ला भरमें वितरण किया जाता था । यदि किसीके घर गाय भैंसका बच्चा हुआ तो शुद्धताके बाद उसका दूध मोहल्ला भरके घरोंमें पहुँचानेकी पद्धति थी । इत्यादि उदारता होनेपर भी कोई विद्यादानकी तरफ दृष्टिपात नहीं करता था और इसका मूल कारण यह था कि कोई इस विषयका उपदेष्टा न था ।
श्री स्व. बाबा दौलतरामजीके प्रति जो मेरी श्रद्धा हो गई थी उसका मूल कारण यही था कि उन्होंने उस समय लोगोंका चित्त विद्यादानकी ओर आकर्षित किया था और बण्डामें एक छात्रावास तथा पाठशालाकी स्थापना करा दी थी। इस पाठशालाकी पढ़ाई प्रवेशिका तक ही सीमित थी और ३० छात्रोंके रहने तथा भोजनका उसमें प्रबन्ध था। इस पाठशालाके मंत्री श्री दौलतरामजी चौधरी बण्डावाले, सभापति रायसाहब मोहनलालजी रोंडावाले, अधिष्ठाता धनप्रसादजी सेठ बण्डावाले और अध्यापक श्री पं. मूलचन्द्रजी विलौआ थे ।
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