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कोई उपदेष्टा न था
बालकोंको जैनधर्म पढ़ाने लगे । आप बड़े ही जितेन्द्रिय थे । आपने अन्तमें अपने भोजनके लिए एक मूँग ही अनाज रख छोड़ा था और बाकी समस्त अनाजोंका त्यागकर दिया था। यद्यपि इससे आपके पैरोंमें भयंकर दर्द हो गया, जो ६ मास तक रहा, परन्तु आप अपने नियमसे विचलित नहीं हुए । आपमें यह गुण था कि आप जो प्रतिज्ञा लेते थे, प्राणान्त कष्ट होनेपर भी उसे नहीं छोड़ते थे । इन महोपकारी बाबाजीका अन्तमें नैनागिरिजी सिद्धक्षेत्र पर स्वर्गवास हो गया । मेरे नैनागिरि पहुँचनेके पहले ही आपका स्वर्गवास हो चुका था । वहाँ पहुँचने पर जब मैंने आपके समाधिमरणकी चर्चा सुनी तो मुझे भारी दुःख हुआ और मैंने यही निश्चय किया कि इस प्रान्तमें एक ऐसा छात्रावास अवश्य खुलवाना चाहिये जिसमें उत्तम पढ़ाई हो, परन्तु सामग्रीका होना अतिदुर्लभ था । कोई उपदेष्टा न था
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उस समय इस प्रान्तके लोगोंकी रुचि विद्याध्ययनमें प्रायः नहीं ही थी । यहाँ तो द्रव्योपार्जन करना ही मनुष्योंका उद्देश्य था । यदि किसीके धर्म करनेके भाव हुए भी तो श्रीजीके जलविहारमें द्रव्य लगा दिया। किसीके अधिक भाव हुए तो मन्दिर बनवा दिया या पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा करा दी...... । यही सब उस समयके लोगोंके धार्मिक कार्य थे। इनमें वे पैसा भी काफी खर्च करते थे। जिसके यहाँ पञ्चकल्याणक होते थे वे एक वर्षसे सामग्री संचित करते थे पञ्चकल्याणकमें चालीस हजार आदमियोंका एकत्रित होना कोई बात न थी । इतनी भीड़ तो देहातमें हो जाती थी, पर बड़े-बड़े शहरोंमें एक लाख तक जैनी इकट्ठे हो जाते थे। उन सबका प्रबन्ध करना कोई सहज बात न थी । लकड़ी, घास, चना आदि सबको देना यह कुछ बात ही न थी, तीन दिन तक मिष्ठान्न भोजन भी दिया जाता था । उस समय आटेकी चक्की न थी, अतः हाथकी चक्कियों द्वारा ही सब आटा तैयार होता था । इस महाभोज्यको देखकर अच्छे-अच्छे रईसोंकी बुद्धि भ्रममें पड़ जाती थी। एक बारमें ५०००० पचास हजार आदमियोंको भोजन कराना कितने चतुर परोसनेवालोंका काम था । आजकल तो १० आदमियोंके भोजनकी व्यवस्था करना कठिन हो जाता है । लोग इतना भारी खर्च बड़ी हँसी खुशीके साथ करते थे, पर विद्यादानकी और किसीको दृष्टि न थी । पूजन पाठ भी शुद्ध रीतिसे नहीं जानते थे । भाद्रमासमें सूत्रपाठके लिये भायजी साहबको बुलाया जाता था । यहाँ भायजी शब्दका अर्थ पण्डितजी जानना और पण्डित शब्दका यह अर्थ जानना कि जो
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