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________________ 124 मेरी जीवनगाथा किसीके बोलनेकी सामर्थ्य न हुई । चन्द्रभानुको कढ़ीका पथ्य लेना ही पड़ा । पथ्य लेनेके बाद किसी तरहकी आपत्ति नहीं आई, प्रत्युत सायंकालको क्षुधाकी वेदना फिर भी हुई, हाँ, कुछ खाँसी अवश्य चलने लगी । प्रातःकाल बाबाजीसे कहा गया कि 'महाराज ! चन्द्रभानु अच्छा है परन्तु कुछ-कुछ खाँसी आने लगी है ।' बाबाजी बोले- 'यह तुम्हारी श्रद्धाकी दुर्बलता है। अच्छा प्रातःकाल उसे कालीमिर्च और नमक डालकर नींबूको गर्मकर चुसा देना, खाँसी चली जावेगी ?' ऐसा ही किया, खाँसीका पता नहीं कि कहाँ चली गई ? बाबाजी बड़े दयालु भी थे। कोई भी त्यागी आ जावे, उसकी सब तरहकी वैयावृत्य श्रावकों द्वारा करवाते थे। सैंकड़ों अजैनोंको जैनधर्मकी श्रद्धा आपने करवाई थी। आपका कहना था कि 'शरीरको सर्वथा निर्बल मत बनाओ । व्रत उपवास करो अवश्य, परन्तु जिसमें विशेष आकुलता हो जावे ऐसा शक्तिको उलंघन कर व्रत मत करो। व्रतका तात्पर्य तो आकुलता दूर करना है ।' आप बाबा दौलतरामजीको बहुत डाँटते थे- कहा करते थे कि 'तेरे जो ज्ञानका विकास है उसके द्वारा परोपकार कर । यदि शक्तिहीन हो जायेगा तो क्या करेगा ?' बाबा दौलतरामजी भी बराबर उनका आदेश मानते रहे । आपका संवत् १६७६ में समाधिमरण हुआ। ये भी एक विशिष्ट ज्ञानी थे। उस समय जब कि पद्मपुराण तक ही शास्त्र बाँचनेवाले पण्डित कहलाते थे तब आपने बिना किसी की सहायता लिये गोम्मटसारका अध्ययन किया था। आपकी प्रतिभा यहाँ तक थी कि गोम्मटसारको छन्दोबद्ध बना दिया। आप कवि भी थे । आपकी बनाई हुई अनेक पूजाएँ और भजन यत्र-तत्र प्रसिद्ध हैं । उनकी कविता सरस और मार्मिक हैं। सं. १९८१ में आपके द्वारा बण्डा (सागर) में एक पाठशाला और छात्रावासकी स्थापना हुई थी । यह आपके ही पुरुषार्थका फल था कि जो इस प्रान्तमें सर्वप्रथम छात्रावास और पाठशालाकी स्थापना हो सकी थी। जहाँ आपका विहार होता था वहीं सैकड़ों श्रावक पहुँचते थे और एक धर्मका मेला अनायास लग जाता था । आपके द्वारा प्रान्तमें बहुत ही सुधार हुआ। पहले यहाँ रसोईमें घर-घर कण्डाका व्यवहार होता था, कच्चा दूध जमाया जाता था, रजस्वला स्त्री बर्तन माँजती थी और खटमलकी खटिया घाममें डाल दी जाती थी। इन सबका निषेध आपने बड़ी तत्परताके साथ किया और वे सब कार्य बन्द हो गये । आपके उपदेशसे ग्रामनिवासी अपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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